बड़े जोरों पर है झूठ का कारोबार
असत्य रूपी तलवारें निरन्तर सत्य पर करती वार
कलयुगी नगरी में हर दिशा एक रावण है
सुनाई देती यहाँ मक्कारी की चीत्कार
भ्रष्टाचार इस कदर बैठा है कुण्डली जमाकर
निरा मूर्ख समझे खुद को सयाना सरदार
खुदा के सब बन्दे हैं फिर दरिन्दगी का शोर कैसा
वस्तुओं को छोड़ करते देह का व्यापार
उतारे नहीं उतरता अजब-गजब भाव लिए
चढ़ जाता जब सिर पर सियासी बुखार
धैर्य को बांधे मैंने भी देखा है अक्सर
गीदड़ों की पंचायत में मिमियाता सियार
उमा पाटनी
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