गुनगुनी धूप के विलोम
जीवन के सर्द दिनों में
सबसे अधिक संघर्षमय
उन हाथों के दिन गुजरे
जो हर रोज़ ईंट की
बोरियों से प्रेम परिभाषित करते रहें
गुनगुने पानी की तरह
रही नमी लिए
वे आँखें जो
सदियों से एक जवान की
प्रेमिका लिए बैठी रही
सबसे गुनगुना रहा
पश्चाताप का भार
जिसे ढोते हुए ज़िन्दगी बीत गई
गुनगुने समय में
गुनगुने सपने तलाशने रहे सबसे कठिन
उनकी आँच में सब कुछ पक सकता था।
पूर्णिमा वत्स
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