साहित्य चक्र

21 February 2020

गुनगुनापन





गुनगुनी धूप के विलोम
जीवन के सर्द दिनों में
सबसे अधिक संघर्षमय 
उन हाथों के  दिन गुजरे 
 जो हर रोज़ ईंट की
बोरियों से प्रेम परिभाषित करते रहें
गुनगुने पानी की तरह
रही नमी लिए
वे आँखें जो
सदियों से एक जवान की 
प्रेमिका लिए बैठी रही
सबसे गुनगुना रहा
पश्चाताप का भार
जिसे ढोते हुए ज़िन्दगी बीत गई
गुनगुने समय में
गुनगुने सपने तलाशने रहे सबसे कठिन
उनकी आँच में सब कुछ पक सकता था।

                                                   पूर्णिमा वत्स 



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