कंठस्थ बैठी हूँ तेरे प्रेम का बाग लिए,
मेरी साँसों में तेरे नाम का राग लिए।
तम,ज्योति,ग़म,हँसी सब पल्लवित है-
पर मैं तो रोती रही तेरा अनुराग लिए।।
गिरि शिखर पर बैठी हूँ बुझी आग लिए,
तुम तो आए नहीं तब भी हम जाग लिए।
उस गिरि पर सजाया पुष्प प्रेम का कभी-
मैं तो रोती रही पुष्प प्रत्यु का दाग लिए।।
राह में राह तकती रही एक आस लिए,
वो मिलने आया भी तो खरमास लिए।
कैसे प्रीत निभाती तुमसे मैं प्राणाधार-
मैं तो रोती रही प्रेम पलों की प्यास लिए।.
शाख सी टूटी हूँ शमीवृक्ष का शाप लिए,
बहने निकली पावन नदियों का माप लिए।
बिखरी हूँ झरने की बूँद-बूँद सी पत्थरों पर-
मैं तो रोती रही प्रेम अग्नि का ताप लिए।।
वन में वैरागिनी बन बैठी कैसा वैराग लिए,
निकली वन को, सिया राम सा त्याग लिए।
किसी मंदिर की मूरत नहीं मैंने तुम्हे पूजा है-
मैं तो रोती रही माटी कलश का भाग लिए।।
कृतिका 'प्रकृति'
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