साहित्य चक्र

02 February 2020

"चेहरा मेरा जला दिया"



चेहरा मेरा जला दिया,
क्या रूह जला पाओगे क्या।
ख़ुद को नारी के रक्षक कहने वाले,
क्या खूबसूरती की लालसा में,
उसी के भक्षक बन जाओगे क्या।


कहते हो, चाहत हूँ मै तुम्हारी,
तो क्या इश्क़ में इतने गिर जाओगे क्या।
तेज़ाब से मेरी जिंदगी जला कर,
क्या इस जहाँ से मोहब्बत को,
सरेआम नीलाम कर जाओगे क्या।

सपने मेरे जला दिए,
क्या आवाज दबा पाओगे क्या।
खुद को शान से पुरुष कहने वालों,
केवल जिस्म की लालसा में,
सारे पुरुष समाज को कलंकित कर जाओगे क्या।

कहते हो, में हूँ सिर्फ तुम्हारी,
तो क्या अपने अहंकार में, 
इतने गिर जाओगे क्या।
तेजाब से मेरा जिश्म जला कर,
क्या मुझे सिर्फ एक भोग की,
वस्तु बना जाओगे क्या।

घर मेरा जला दिया,
क्या खुद का घर बचा पाओगे क्या।
आज एक पिता रो रहा,
अपनी बेटी ही दुर्दशा पर,
कल खुद की बेटी से नजरे मिला पाओगे क्या।

कहते हो, तुम खुद को मर्द,
तो क्या अपनी मर्दानगी में इतने गिर जाओगे क्या।
तेजाब से मेरी जिंदगी जला कर,
आखिर कब तक एक ओरत पर,
ऐसे जुल्म ड़ालते जाओगे क्या।

                                        ममता मालवीय


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