अब रूहों से रूहों का,
जहाँ में इकरार नहीं होता।
प्यार तो होता है जमाने में,
पर प्यार सा प्यार नहीं होता।
व्यापारी बन बैठा ये जमाना,
है रूप और शोहरत का दीवाना।
खूब छलकते है ख्वाहिशों के जाम,
मगर हकीकत का दीदार नहीं होता।
ख्वाहिश मंदो की ख्वाहिश है,
मोहब्बत अब सिर्फ नुमाइश है।
वक्त गुजारने पेड़ों पर आते हैं परिंदे,
अब घोंसला दरख्तों का तलबगार नहीं होता।
जिस्मों से जिस्मों तक का प्यार है,
मोहब्बत टूटे आइनो का व्यापार है।
इन आइनो में बसे चेहरों के ऊपर,
अब कोई भी भाव दमदार नहीं होता।
मन से उतर जाती है मनमानियां,
याद आती है जब वफा की बेइमानियां।
बेवफाई के नुकीले दामन में अब,
वफा के फूलों सा किरदार नहीं होता।
आरती त्रिपाठी
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