साहित्य चक्र

14 February 2020

संस्कार


जैसे ही मेघा ने लोटे का जल पूजा घर में रखा उसे एक आवाज़ सुनाई दी।
''ये क्या कर रही हो?''
'तुम कौन हो? मेघा घबरा कर इधर उधर ताकने लगी।
''अरे मैं तुम्हारी अंर्तात्मा।'' '
कहते है पितृपक्ष में हमारे दिवंगत पितृ जल की आस में धरती पर आते है उन्ही के लिए ये जल रख रही हूँ।
हूँ,,
पर कभी सोचा है अपनी पच्चासी वर्ष की सासु माँ जो चार चार बहुओं के रहते
गांव पर अकेली रह रही है।''
पर मैंने तो हमेशा उन्हें अपने साथ रखना चाहा पर,,,
''वो नहीं रहतीं यही न....बहुओं से उनकी नहीं पटती है।
ये अंतरात्मा की आवाज़ थी।''
''हाँ''
पर तुम तो बहुत बड़ी बड़ी बाते करती हो......
संस्कारों की नैतिकता की।
रिश्तों को निभाने जानती हो,,''
कहाँ गया तुम्हारा संस्कार?
कैसे भूल गयी अपने माँ पिता के दिए वचन को?
माँ की दी हुई सीख को जो सदैव कहती थी
बेटा बहुत ही कष्ट और त्याग से संतान को जन्म देकर सुन्दर संस्कार और शिक्षित बनाते है माँ बाप।
जिस सास के बेटे को ले कर तुम खुशहाल रहोगी उस माँ को कभी भी कष्ट मत होने देना''!

हाँ पर,.....
अरे तो क्या हुआ जो उन्होंने तुम्हारे अधिकार नहीं दिए?,.....
''क्या हुआ जो तुम्हे बड़ी बहु का हक नहीं मिला?''
''उन्होंने अपना बेटा तो दिया न तुम्हे''
हाँ पर''
कुछ नहीं ज़रा पीछे मुड़ के देखो,...
आज तुम जहाँ खड़ी हो ये तुम्हारा भाग्य है पर कर्म और त्याग तो उन बुजुर्गों ने किया।
पथभ्र्मित मत हो...
मत भटको कर्तव्यपथ से।


वक़्त रहते सम्भल जाओ'' अपने संस्कार को व्यवहार में लाओ''
जला दो होली अपने अधिकारों की''
कहीं ऐसा न हो कल ये तुम्हारी सासु माँ एक बून्द जल के लिए,,,,,,
दुनियाँ तुम्हे क्या कहेगी? कैसे माफ़ करोगी खुद को???
तुम्हारे बच्चो पे क्या असर होगा?
बस,.......
मेघा की साँसे बहुत तेजी से चलने लगी......
उसने दोनों हाँथ अपने कान पे रख
लगभग दौड़ते हुए अपने पति के कमरे में पहुंची।
जगे हैं आप ? उसकी आवाज़ गले में ही अटकी लगी।
अरे क्या हुआ मेघा? घबराये हुए रविश मेघा के क़रीब आ गए।
रविश कुछ समझ पाते इसके पहले ही मेघा कहने लगी--
सुनिए कल सुबह ही आप माँ के पास चले जाइये। मेरी चिंता छोड़िये।
मैं रह लुंगी अकेली।

अगर अकेले में माँ को कुछ हो गया तो ? हम खुद को कभी माफ़ नहीं कर पाएंगे। मेघा का स्वर थरथरा उठा।
मुझे अपने माँ पिता के दिए संस्कार प्यारे हैं.! मैं विमुख नहीं होना चाहती अपने कर्तव्य से।
दिवार पे लगी अपने माँ पिता की तस्वीर पर उसकी नज़र गई जो शायद मुस्कुरा रही थी।
''शाबाश बेटा मुझे तुमसे यही उम्मीद था''। लगा उसके पिता बोल पड़े।
दोनों सुबह का इंतज़ार करने लगे।

@ मणि बेन द्विवेदी


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