आत्मतृप्ति हो या ना हो धन के पीछे भागते हैं,
देशप्रेम को रगड़ बूट से धन के पीछे भागते हैं।
घोटाला, कालाबाजारी, देशद्रोह को आत्मसात कर,
रक्त बहाकर अपनों का धन के पीछे भागते हैं।।
धन का लोभ चढ़ा जो सर पर नर ही ना रह जाते हैं,
बन के पिपासु धन का वो निशिचर ही रह जाते हैं।
निर्दोषों के रक्त से रक्तिम पंजे यहां निशाचर के,
दोषी संग दोषी मिलकर सब दोषरहित रह जाते हैं।
भारतवर्ष के वीरों ने शमसीरों को चमकाया था,
न्यायमार्ग पर अपराधी का रक्त सहज ही बहाया था।
रक्त सुशोभित खड़ग बाहु का स्वामी निर्वीर्य हुआ,
जिसके कुल के गौरव ने अपराधी को मिटाया था।
प्रदीप कुमार तिवारी
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