क्यों नित्य नित्य किसी बेटी के , अंगो के विमोचन हो जाते है,
क्यों चीख़ नहीं सुनते कर्णपटल , क्यों बंद ये लोचन हो जाते हैII
नग्न देह वह पड़ी हुई है , शर्म से आँखे गढ़ी हुई है,
सोंचो जरा उन चारो ने जब , तन से साड़ी खींची होगी ,
एक पिता के दिल से पूंछो, उसपे तब क्या बीती होगी ,
माँ ने कैसे गर्भ में अपने पाला होगा , खून से बिटिया सींची होगी II
क्यों श्वान ये मानस रूप में , हमे नोच नोच कर खाते है ,
क्यों ऐसे कुकृत्यों से ये , भला तनिक नहीं घबराते है ,
दानव ये निसाचर दुष्ट अन्यायी , नए नए भेष धराते है ,
कहा चले गए राम कलियुग के , क्यों नहीं निकलकर आते है II
चीख़ चिल्लाहट आक्रोश और नारे हम इतने सस्ते में बिक जाते है ,
जो जाते विस्मृत चन्द दिनों में ,क्या नए काण्ड की आस लगाते है II
जलते है जब ये तन और मन , चीख़ो की आह निकलती है ,
क्यों थम जाते है उसके कदम , जब वो अपनी राह निकलती है II
कब तक आँखों में अश्रु भरे हम , शांत सुन्न से बैठे रहंगे ,
भयंकर कष्ट दर्द बिटिया के आखिर कब तक सहते रहंगे II
कोई बेटी अपनी अस्मिता , ऐसे कैसे खो सकती है ,
क्यों नहीं सोचते आप सभी , कल को बेटी आपकी भी हो सकती है II
मेरे सभ्य समाज के सभ्य जनों , मुझ पर इतना उपकार करो ,
मेरे चन्द शब्दों की इस कविता पर , जरा बैठ गूढ विचार करो ,
जरा बैठ गूढ विचार करो II
आंशिकी त्रिपाठी 'अंशी '
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