साहित्य चक्र

07 February 2020

रूई का बोझ






फिल्मकार सुभाष अग्रवाल ने ऐसे ही एक परिवार में द्वंद से गुज़र रहे एक बूढ़े बाप ‘किशुन शाह’ की कथा पर सम्वेदनशील फिल्म बनाई थी। फिल्म ‘रूई का बोझ’ चंद्रकिशोर जायसवाल के उपन्यास ‘गवाह गैर हाज़िर’ पर आधारित थी। सुभाष की यह फिल्म NFDC के सहयोग से बनी थी। पकंज कपूर, रीमा लागू और रघुवीर यादव फिल्म में मुख्य भूमिकाओं में थे। पंकज कपूर ने किशुन के किरदार में एक मजबूर बुज़ुर्ग की पीड़ा को पूरे मर्म से निभाया।किशुनशाह जैसे बुज़ुर्गों के साथ परेशानी द्वंद की रहती है। उनका घर से ताल्लुक मोह से अधिक जीवन-मरण का मसला हो जाता है। गृहस्थी छोड़ने का कठिन निर्णय खुद को समझाने से कठिन हुआ करता है। गृहस्थी में रहते आए आदमी के लिए एक झटके में सारे नाते तोड़ लेना आसान भी नहीं होता। खासकर बुज़ुर्गों को इस इम्तिहान से नहीं गुज़रने देना चाहिए। उनका वजूद अक्सर इसे सहन नहीं कर पाता।

मैं नहीं जानता कि कितने भारतीयों ने भारतीय सिनेमा के इस रत्न के बारे में सुना है,या फिर इसे देखा है। वृद्धावस्था में क्या जीवन हो सकता है, इसका अधिक वास्तविक चित्रण नहीं किया जा सकता है। जीवन केवल अव्यावहारिक इसलिए नहीं बनना शुरू कर देता है क्योंकि हमने अपने जीवन और घरों की बागडोर अपने बच्चों को दे दी है। इसमें और भी उतार-चढ़ाव होते रहते हैं। ऐसे दिन आने वाले हैं जब हम अवांछित महसूस करते हैं, एक बोझ भी। हमें ऐसा लग सकता है कि अब हमारे पास जीने के लिए कुछ नहीं है। लेकिन ज्यादातर बार ऐसा नहीं होता है।वृद्धावस्था को जीवन का अंतिम पड़ाव एवं समस्या से घिरी हुई  अवस्था माना जाता है क्योंकि इस अवस्था में वृद्धों को अनेक समस्याएं घेर लेती है, जिसके परिणामस्वरूप दूसरों के साथ संबंध स्थापित करने में असमर्थ रहते है। समय की रफ़्तार  के साथ-साथ समाज में नये नये परिवर्तन होने लगे हैं। नई पीढ़ी के लोग पुराने विचारों के लोगों को अपने जीवन में आने को उपयुक्त नही समझते है। इस कारण युवा पीढ़ी उनके अनुभवों एवं विचारों की उपेक्षा करते है। वद्धों की समस्याओं एवं उनकी उपयोगिता भी समाज में कम होती नजर आने लगती है। यह अकेलापन इंसान को जीते-जी मार देता है। बर्नार्ड शाॅ के मुताबिक ‘लोग मरते तो बहुत पहले हैं, लेकिन दफनाए बहुत बाद में जाते हैं। मरने और दफनाते के बीच का यह फासला ही अकेलापन की त्रासदी हैं, जिसमें आदमी घूट-घूट कर मरता हैं। अकेलेपन का कारण मन है। लेखिका जेम्स एलेन ने लिखा है कि व्यक्ति का मानस एक बगीचे की तरह होता है, जिसे चाहें तो आप अपनी सूझबूझ से संवारें या उसे जंगली बन जाने दें। हमारा मन भी नकारात्मक विचारों से भर जाता है तब बीमार हो जाता है, तब अकेला हो जाता है। मनोचिकित्सक मानते हैं कि एक बीमार आदमी तन से अधिक मन से बीमार होता है। अकेलापन एक मानसिक बीमारी है। जुगनू तभी तक चमकता है, जब तक उड़ता है। यही हाल मन का हैं। इसलिये मन को कमजोर न होने दें, मन के द्वारा अपना नजरियां बदलें, अकेलेपन को अभिशाप नहीं, वरदान बनायें। समाज एवं सरकार को मिलकर इस समस्या के समाधान हेतु जागरूक होना होगा, तभी इस अकेलेपन के रोग महात्रासदी बनने से रोका जा सकता है।इन सभी बातों को सही ढंग से समझाती है यह फिल्म।

हमें जीवन में किसी भी चीज के मूल्य का एहसास तब होता है, एक बार जब हमें उसे खोने का डर सताने लगता है, चाहे वह भौतिकवादी प्रकृति का हो या भावनात्मक प्रकृति का हो। यह फिल्म किसी के दिल के भीतर इन भावनाओं की उथल-पुथल को बढ़ाने में सफल होती है। आप महसूस करते हैं कि माता-पिता और बच्चे, चाहे वे कितनी भी लड़ाई या बहस करें, एक दूसरे के जीवन में माँस और नाखून की तरह होते हैं ,जब तक साथ रहते हैं एक सम्पूर्ण अंग का निर्माण करते हैं और जब अलग होते हैं तो पीड़ा से सने हुए दो अलग अंगों का।भारतीय दृष्टिकोण से, यह फिल्म कला का एक अद्भुत नमूना है, जिसे अगर किसी ने देखा हो, तो वह यह महसूस कर सकता है कि अपने माता-पिता की देखभाल करने में इतना समय नहीं लगता जब उन्होंने इसे अपने लगभग पूरे जीवन के लिए किया हो। फिल्म के रचनात्मक पहलू पर अभिनय उतना ही वास्तविक था जितना कि पंकज कुमार, रघुबीर यादव और रीमा लागू द्वारा किया जा सकता है। संवाद भरोसेमंद थे, पार्श्व संगीत गूंज रहा था और दिशा शीर्ष पायदान पर थी। मुझे उम्मीद है कि भारतीय सिनेमा के रत्नों की गिनती करते समय इस तरह की फिल्मों के बारे में भी बात की जा सकती है।

रुई का बोझ का निर्देशन सुभाष अग्रवाल ने द्वारा किया गया था और इसे नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (NFDCI) ने बनाया था। फिल्म में पंकज कपूर, रीमा लागू और रघुवीर यादव हैं। यह फिल्म वर्ष 1997 में 115 मिनट के रनिंग टाइम के साथ रिलीज़ की गई थी।विभाजन के बाद, किशुनशाह अपने सबसे छोटे बेटे के साथ घर बसाता है, लेकिन उसका शांत जीवन उम्मीद से जल्द खत्म हो जाता है। उसे बुढ़ापे के अपमान का सामना करना पड़ता है-अपमान, अपमान। उसका अब कोई मूल्य नहीं है। एक दिन उसे रहने के लिए कबाड़ के कमरे में ले जाया जाता है। वह परिवार से पूरी तरह से अलग हो जाता है और सभी संबंधों को खत्म करने और दुनिया को हमेशा के लिए त्यागने का फैसला करता है।NFDCI ने 2013 में सिनेमा को 100 साल पूरे करने के लिए डिजिटल रूप से इस फिल्म को फिर से प्रिंट करने में सफलता हासिल की ।

                                                                 सलिल सरोज


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