आत्ममंथन
गहरी निद्रा से जाग गया
दर्पण समय ने दिखलाया
किये जाने अपराध कितने
बीता समय तो एहसास आया
छोड़ चले वो अकेला मुझे
झूठा जिनपर अभिमान किया
रहे जो मेरे हितैषी सच्चे
नहीं उनको कभी समझ पाया
पास था सब कुछ
स्वार्थ वश जीवन जिया
बदली जो समय ने चाल
आत्मा तक मेरी जिंझोड़ गया
समय स्वयं गंवा चुका
रिश्तों को ना महत्व दिया
झकझोर दिया मेरे ही जवाबों ने
आत्ममंथन जब स्वयं किया
विनीता पुंढीर
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