साहित्य चक्र

20 February 2020

यथार्थ का धरातल





जब शाखों से पत्ते झड़ने लगें
और पतझड़ मूंह चिड़ाने लगे तो....
न चाहते हुए भी चलचित्र की भांति
आंखों के समक्ष छाने लगतीं हैं
अवहेलनाओं की वो आंधी
जिससे बचने को किस कदर
तड़पा था मेरा मन
उड़ा ले जाती थी वो
मेरे मन भीतर से
प्रेम भरी वो सारी कल्पनाएं
जो संजोती थी मैं
बड़ी ही कोमलता से बस
और बस तुम्हारे लिए
मुट्ठी भर आकाश ही तो
चाहा था मैंने..अपने
सपनों के विस्तार के लिए
यथार्थ के धरातल पर
रहकर भी न जाने क्यूं
संजों लिए थे मैंनें ऐसे ख्वाब
जिन्हें मुकम्मल करने की
ख्वाहिशें प्रारंभ से ही
निराशाओं की बेड़ियों में
जकड़ी असहाय...
महसूस करती थी खुद को
कभी समझ नहीं पाई कि
मुझसे पूरे होकर भी....तुम
क्यूं अधूरा कर गये मुझको।

                                     निधि मुकेश भार्गव मानवी


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