अगर प्रेम की बात करें तो चाहत या जरूरत किसी एक को चुनने वाली कोई बात ही नहीं है।
ईश्वर की भक्ति के लिए जैसे उनका साक्षात् होना जरूरी नहीं होता,तो किसीको चाहने के लिए उस इंसान की जरूरत क्यों?
बिन जताए,बिन बताए,
कीसिकी फ़िक्र करना, किसीको चाहना,
किसिकी खुशियों के लिए दुआ मांगना ही चाहत है।
जहां जन्म देने लगे जरूरत,
वहां चाहत नहीं हो सकती,
फ़िक्र के बदले फ़िक्र,
मोहब्बत के बदले मोहब्बत,
साथ के बदले साथ मांगना,
फिर ये चाहत नहीं हो सकती।
वफ़ा के नाम पर ढेरों दुःख दे जाते हैं,
साथ के नाम पर एक दिन साथ छोड़ जाते हैं,
ख्वाब दिखाकर,ज़िन्दगी भर का ग़म दे जाते,
जरूरतों की बातें करने वाले कुछ ऐसे ज़ख़्म दे जाते हैं।
साथ निभाने का वादा किया जाता है,
जरूरत पूरी होने पर हर वादा तोड़ दिया जाता है,
कहने को जो अपने थे कल,
वो भी पराए हो जाएंगे,
जरूरत पूरी होने पर,
सब आपको भूल जाएंगे।
निस्वार्थ भावना,निस्वार्थ चाहत,
कभी निराश नहीं करेगी,
जो आपका हो नहीं सका उसके जाने का ग़म भी नहीं देगी।
प्रेम चाहत ही है,
अगर निस्वार्थ है,
प्रेम पूजा ही है,
अगर बिन स्वार्थ है।
निहारिका चौधरी
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