साहित्य चक्र

16 February 2020

वे मोह से विचलित नहीं

श्री कृष्ण गीतागीत
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जो शोक के लायक नही, शोक फिर क्यों कर रहे।
विद्वान होकर  भी धनंजय, अज्ञानता  से भर रहे।
जिसके लिए तुम शोक करते,न जन्म लेती न मरे।
अर्जुन  हमारी  बात पर तुम,कान  क्यों न धर रहे।

जो भी खड़े रण क्षेत्र में,है  शाश्वत यह जानले।
हर काल  में मौजूद थे , है  और   रहेगे मानले।
यह देह भी  पाकर अवस्था निरन्तर बढ़ती रहे।
फिर मृत्यु का करके वरण, कलेवर को बदल ले।

जो धैर्य से परिपूर्ण है, वे मोह से  विचलित नहीं।
वे मृत्यु का करते वरण ,वे  मृत्यु से  डरते नही ।
सुख दुख का आना जगत,में शीतोष्ण समान है।
जो देखकर विचलित नही मानव वही महान हेै।

रहता सदा समभाव से,होता कभी विचलित नहीं।
अमृत्व  को  पाता वही,तुम  जानते   अर्जुन नहीं।
असत  स्थापित  नही , सत  परिवर्तित कब हुआ।
निष्कर्ष  तत्व ज्ञानियों  ने, पार्थ  स्थापित  किया।

जो व्याप्त सारे जगत में,चर अचर का जो प्राण है।
नि:शेष  अविनाशी  वही,अमर  अव्वय  महान  है।
है रूप उसका  ही  जिसे, तू  देह  कहता  पार्थ  है।
तू नाश  निश्चित  जानले,चिंता  यह  तेरी  व्यर्थ  है।

अब छोड़ कर चिन्ता धनंजय,हाथ गांडिव थामले।
यह  युद्ध  होना  है  लिखा, तू  बात   मेरी  मानले।
जो   मारने   की   बात   करते, या मरा  है जानते।
वे  दोनों   अज्ञानी    धनंजय,   मर्म   न   पहचाते।

आत्मा   शाश्वत  पुरातन,  जन्म  यह  लेती  नही।
देह  के  मारे  हुए  भी, यह  आत्मा   मरती  नही।
जान   ले  कौन्तय   इसको,  आत्मा   शाश्वत  है।
न  मार   सकता  ,न  मरे, यह आत्मा  निश्चित है।

देह  पर  जर्जर   हुए  परिधान, मानव   त्यागता।
और  बदले  में  धनंजय, नूतन वसन को धारता।
आत्मा  की  प्रकृति  इस,  क्रीड़ा   के  समान  है।
त्याग  दे  जर्जर  कलेवर, नवीनता  का  मान  है।

न शस्त्र इसकों काट  सकता, दहा न  अग्नि सके।
न जल  भीगो  सकता  इसे, न सुखा   वायु  सके।
न हो सके खंडित किसी से,न किसी में मिल सके।
यह  सर्वव्यापी अविकारी , शीत  से  न गल सके।

है कल्पना  से  यह  परे, व्यक्त  की   न  जा सके।
शोक  फिर  क्यों  कर रहे हो, देख न इसकों सके।
तुम  यदि  जानो  की  मरती, जन्म  लेती  आत्मा।
पृथानंदन  फिर  न  कोई,शोक  का  कारण  बना।

जन्म  जिसने है  लिया, मृत्यु भी निश्चित जानलो।
जो  मरा  वह जन्म  फिर  ले, बात  मेरी  मानलो।
तो  बताओं तुम धनंजय शोक  फिर क्यों कर रहे।
यह विधाता का नियम है फिर भला क्यों ड़र रहे।

आदि   में  अव्यक्त   सारे,  मध्य   में   जाने  गए।
नाश  होने  पर  धनंजय, अव्यक्त  फिर माने गए।
व्यक्त   इसकों  जानते   या,  मानते  अव्यक्त  हो।
शोक  का कारण नही फिर, इन सभी से मुक्त हो।

देखता  अचरज  से  कोई ,कोई अचरज मानता।
कोई  अचरज  की तरह सुन,जानकर न जानता।
हे   भरतवंशी !  इसे   न  कोई,वध  पाया  कभी।
जीव  के  हित  शोक  करना व्यर्थ बातें हे सभी ।।

                                                   हेमराज सिंह


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