औरतें
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दिहाड़ी मजदूरी ,
खेतों में गाती औरतें,
शहरों के कारखानों में,
मशीनों के साथ थिरकती,
गती,लय ,ताल क्योकि,
ये नही आजादी की उड़ान,
बड़ी बेदर्द है, ये मजबूरी!
औरतें अपने आँचल में ,
बाँधे जिम्मेदारियों की गाँठे,
माथे पर लादे कर्तव्य बोझ,
पहर होने से ही पहले ही,
गंतव्यमान को चल देंती,
जीवन ध्येय को साधनें!
औरतें करती सोलह श्रृगांर,
इनको है इसका अधिकार,
ये जानती है, अपनी हदें,
कई रूपों की ओढ़नी ओढ़ती,
क्योंकी धरती पर मिला इन्हें,
जीवन सृजन का आधार,
अपने वर्चस्व के लिये लड़ती,
परिवार के लिये जूझती,
बच्चों को पालती,सँवारती,
जीवन यापन की जिजीविषा,
बड़ी कठिन है ,ये जिंदगी,
पर हार कहाँ मानतीं!
मनीषा सहाय
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