धनी-निर्धन हर इंसान
अपनी-अपनी सामर्थ्य अनुसार
धार्मिक स्थलों के लिए श्रृद्धा पूर्वक,
स्वेच्छा से देता है दान,
जरूरत पड़े कभी अगर वहां
तो खुशी से करता है श्रमदान,
आंच जो आए धार्मिक स्थलों पर
तो छेड़ देता है धर्मयुद्ध
और निसार करता है अपने प्राण,
विपरीत इसके मांगने पर भी
बहुत कम लोग करते हैं स्कूलों
और अस्पतालों के नाम पर दान,
वहां पर स्टाफ और सुविधाएं बढ़ाने पर
बहुत कम लोगों का होता है ध्यान,
उसके लिए आवाज भी कम लोग ही
उठाते हैं तो फिर देखा किसने श्रमदान,
हमारी प्राथमिकताओं में ही
जब नहीं हैं ज्ञान और इंसान
तो कितना भला कर लेंगे हमारा
खुद आकर भी धरती पर भगवान।
जितेन्द्र 'कबीर'
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