अब तुम कैसी दिखती हों..?
कुमुद कली सी काया तुम्हारी
सलवार सूट में भी जचती थी।
छोटी सी बिंदिया, नथनी, बाली
पहन तुम सजती थी।
करती होंगी सोलह श्रृंगार
मांग सिन्दूर से भरती होंगी ?
रूप सुहागनों वाला धर
खूब अब संवारती होंगी?
मैं अक्सर येही सोचता हूं
अब तुम कैसी दिखती हों....?
मेहंदी मेरे नाम की,हथेली पर अपने रचाती थी।
लाल सुर्ख हिना रंग देख, फिर खूब इतराती थी।
मेहंदी शगुन की अब भी लगवाती होगी ?
हर करवाचौथ, हक़दार का नाम
उसमे लिखवाती होंगी।?
शांत झील सा हृदय तुम्हारा,
छोटी छोटी बाते दिल से लगा लेती थी
छिटपुट हमारी अनबनो में
अश्कों से नीर बहाती थी।
दूसरों का मनोहार अब करती होंगी ?
दिल को समझाना सीख गई होंगी ?
मैं अक्सर येही सोचता हूं
क्या अब भी नखरे तुम दिखाती हो...?
क्या अब भी भाव बहुत खाती हो...?
मैं अक्सर येही सोचता हूं
अब तुम कैसी दिखती हो....?
प्राची गोयल गुप्ता
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