ऊचे भवन पैसों के चमक हैं फिके,
कानों तक जब आई उनकी चीखें।
पल भर में आतुर नेत्र हो गए विभोर,
जब देखा मैंने उनके निकेतन की ओर।
आज मैंने देखा उन्हें हंसते हुए ,
आंखों में चमक हृदय को प्रफुल्लित होते हुए।
दो दानों का सुख तुम पूछो उससे,
जिसने भूखे ही देख लिया दुनिया को पलते हुए ।
लकुटिया टेके सबको निहार रहा है,
ऐसे ही वह उसका जीवन सवार रहा है ,
हृदय पर बोझ है भरपेट भोजन का,
अपने घर के लिए वह खुद को जला रहा है।
कीर्ती चौधरी
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