वक़्त ने चलाया दो राहों का चक्
पहली को नाम दिया सब्र ,
दूसरी कहलाई कब्र ।
खुला छोड़ दिया मानव को,
और मौत के दानव को,
कौन सी राह चुने करना था फ़ैसला
बंद करो इधर-उधर घूमना ,
नाज़ुक हालातों को न भाँपना ,
सबको ख़तरे की खाई में झोंकना ।
हाथ में ले खड़ा है दराती कोरो
जिसने भी थोड़ी सी नज़दीकियाँ ब
समझो उसपर दराती चलाई ।
वक़्त का इशारा समझो ,
लक्ष्मण रेखा खींचो ,
दूर रह इक-दूजे का जीवन सींचो ।
थोड़ी दूरी सहकर ,
खुदको और सबको जीवन देकर,
कर ये वक़्त गुज़र संभलकर ।
आओ थोड़े दिन रह लें अकेले ,
फिर लगेंगे महफ़िलों के मेले ,
गुज़रेंगे गलियों से बेख़ौफ़ क़ा
इधर-उधर हैं सब बिखरे ,
पार कर के सब्र के सागर गहरे ,
दिन अवश्य देखोगे सुनहरे ।
इतरा रहें हैं कुछ चाँद के लगा
यहाँ धरती पर इंसान घूम रहा मुँ
कुछ महत्वाकांक्षी कर रहे जानले
धरती पर हैं ऐसे लालची लोग भार
रुका नहीं ग़र इनका अमानवीय व्
मिट जाएगा सारा संसार ।
और कितनी वैक्सीन बनाओगे ?
कितने और कोरोना लाओगे ?
लालच पर जब तक क़ाबू नहीं पाओगे
ऐसे ही हालातों में घिरा पाओगे
ऐसे ही हालातों में घिरा पाओगे
इंदु नांदल
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