साहित्य चक्र

26 June 2021

प्रेम करो प्रकृति से



 
शाम-सवेरे सुनते हैं
पंक्षियों के मधुर-गान
बहुत खूबसूरत लगता है

अपना यह सारा जहां
कबूतरों का गुटूर गु
सुग्गों की है, प्यारी बोली
मैनों का गूँजन भी भाता है

रहतीं हैं जब पूरी टोली
चहक-चहक कर जब गातीं हैं
भोर की तन्द्रालस दूर भगातीं हैं

सबके कलरव में छिपे हैं
जगत के कुछ संचित ज्ञान
प्रातःकाल कर देते हैं सबको

देखो! कितना ऊर्जावान
तब इनके बसेरों को
हरगिज़ उजड़ने नहीं देंगे 

जो धरा पर बचे हैं पेड़
उनको उखड़ने नहीं देंगे
लकड़ियों की जगह पर
अब लोहे को लगा देंगे 

प्रेम करो प्रकृति से
जन-जन में, यह भाव जगा देंगे।

                                          नेतलाल यादव


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