साहित्य चक्र

20 June 2021

मैं, बरगद वृक्ष




सालों से मैं खड़ा हुआ 
बरगद वृक्ष, विशाल था। 
सुंदर बड़ी शाखाएँ मेरी 
जिन पर करता नाज़ था। 

कितना सुन्दर कितना प्यारा 
मेरा ये अद्भुत संसार था। 
बड़ी बड़ी जटाओं पर 
मुझको बड़ा ही अभिमान था। 

सुन्दर सुन्दर पक्षी जिसमें 
गाते कलरव राग थे ।
किस्म किस्म की कोटर उनकी 
मेरा साजो श्रृंगार थे। 

चारदिवारी में अकसर ही 
सजती जहाँ चौपालें थी। 
सावन में जब लगते थे झूले 
छटा निराली होती थी।

समय का पहिया ऐसा घुमा 
सब कुछ जैसे बदल गया। 
हरा भरा जो आँगन था 
आज वीराना हो गया। 

आधा तो कट ही चुका था 
आज तो पूरा ही कट गया। 
घर बन पाए यहाँ किसी का 
इसलिए मेरा घर उजड़ गया। 

देता रहा सबको प्राण वायु 
सालों तक सबका घर रहा। 
आज पड़ा हूँ क्षत् विक्षिप्त सा 
लगता है अब, कोई अपना ना रहा। 


                                      गीता पांडे 


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