हिन्द देश के परमवीर,
आर्यावर्त के शान की,
ये गौरवमयी गाथा है,
पृथ्वीराज चौहान की।
बारहवीं सदी में हिन्द ने,
ऐसे वीर को पाया था।
बिना अस्त्र-शस्त्र जिसने,
सिंह को मार गिराया था।
शब्दभेदी विद्या में कुशल,
वह हिन्द का अभिमान था।
वो बुद्धिमान और थे चतुर,
उन्हें छः भाषाओं का ज्ञान था।
संयोगिता थी संगिनी और
मित्र थे कवि चंद्रबरदाई।
दोनों मित्र थे साथ चाहे,
कितनी भी विपदा आई।
शत्रु सेना का शासक,
मुहम्मद गौरी, अफगानी था।
पृथ्वीराज ने युद्ध में,
पिला दिया उसे पानी था।
अपनी युद्ध कुशलता से,
शत्रु को धूल चटाया था।
इनके सामने गजनी का,
सुल्तान भी थर्राया था।
किया वार पर वार और
हर बार मुँह की खाया था।
पृथ्वीराज ने गौरी को,
सत्रह बार हराया था।
जब माफ किया उसे सत्रह बार,
फिर से किया उसने वार।
अबकी पृथ्वीराज हार गए,
और गौरी जीत गया इस बार।
गजनी ले गया पृथ्वीराज को,
बंदी उन्हें बनाया था।
वह क्या जाने अपनी मौत को,
घर पर वह ले आया था।
आँखें फोड़ दी पृथ्वीराज की,
फिर भी न माने हार थे।
बंदीगृह में योजना बनाई,
दोनों मित्र होशियार थे।
शब्दभेदी बाण में थे पारंगत,
उठाया तीर कमान को।
चलाया बाण वाणी सुनकर,
मारा गजनी सुल्तान को।
योजना मुताबिक दोनों ने,
खुद को भी फिर मार दिया।
यह बात सुन संयोगिता ने,
तब था स्वर्ग सिधार लिया।
नमन है ऐसे वीर को जिसने,
भारत का मान बढ़ाया था।
बिना आँखों के ही जिसने,
दुश्मन को मार गिराया था।
चन्दन केशरी
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