गज़ल
अंगूर की ये बेटी कितनी है ग़म कि मारी।
रहती है क़ैद हरदम बोतल में ये बेचारी।।
बेबस समझ के इसको जिसने भी चाहा छेड़ा।
कितनों ने साथ इसके यूँ रात है गुजारी।।
दर-दर भटक रही है सड़कों पे बिक रही है।
है बदनसीब कितनी अंगूर की दुलारी।।
गलियों से ये महल तक हर रात बनती दुल्हन।
देखो नसीब इसका फिर भी रही कुंवारी।।
ग़म हो या हो खुशी ये होती शरीक सब में।
फिर भी इसे बुरी क्यों कहती है दुनिया सारी।।
दिल टूटा जब किसी का इसने दिया सहारा।
ग़म के मरीज़ों को है ये जान से भी प्यारी।।
समझा न ग़म किसी ने देखो निज़ाम इसका।
हँस-हँस के सह रही है हर ज़ुल्म ये बेचारी।।
निज़ाम-फतेहपुरी
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