सुनो पुरोहित सुनो सामंत सुनो महाजन
तुम इसे संधिपत्र समझना
हाँ मैं युद्ध नहीं चाहता
यह संधिपत्र है
मैं तुम्हारी पालकी के बोझ से छिल चुके अपने कांधों पर
नहीं उठाना चाहता कोई हथियार
ज़रूरी नही कि हर संधि प्रस्ताव हार की
आशंकित जमीन पर रेंगता हुआ मिले
कभी कभी वह रेगिस्तान पर बर्फ की तरह भी गिरता है
संधिपत्र पर्याय है प्रेमपत्र का
किसी भी भाषा की सर्वश्रेष्ठ कृति है संधिपत्र
काश कि तुम्हारे सबसे पवित्र धर्मग्रंथ में होता एक पन्ने का भी कोई संधिपत्र
तो नहीं होता महाभारत या उसके बाद कोई युद्ध
युद्ध के दार्शनिक देवता सन्धि पत्र को कमजोरी बताएँगे
इसलिये मैं कहता हूँ कि तुम मेरे कांधों को कमजोर ना समझना
मैं समूची पृथ्वी को बैठाकर पालकी में
युद्धभूमि से दूर
समय के पार ले जाना चाहता हूँ उससे बेहतर जगह
जिसे तुम स्वर्ग कहते हो या सतयुग कहते हो
मेरी उस जगह का नाम है साम्य.....
सम्यक साम्य
इसलिये अब उतरो पालकी से
पृथ्वी भारी होती है
तुम्हारा काँधा भी चाहिए पालकी के पीछे
मैं रहूँगा आगे .....
क्योकि मैं तुमसे बेहतर जानता हूँ साम्य का रास्ता...
मोहन आर्य
शांदार जबरदस्त प्रगतिशील कविता एवंं कवि के विचार।।। दिल खुश हो गया ऐसा अनमोल सांधि पत्र पड़ कर।
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