साहित्य चक्र

06 June 2021

कोरोना काल : अस्पताल की डायरी - 3




तीन दिन तक अस्पताल में और इससे पहले लगातार घर पर ली गई दवाओं ने पेट को गोदाम बना दिया । नजीजन पेट में दवाओं के साथ भोजन, पानी,चाय सब कुछ जाता रहा लेकिन कोष्ठबद्धता यानी कब्ज ने सब कुछ जाम कर दिया । अब कोविड से अधिक पेट की जकड़न और ऐंठन ने बुरा हाल कर दिया । घर से लगातार अनुदेश मिल रहे थे कुछ न कुछ खाते रहना पेट पर दबाव होगा तो मल विसर्जन भी होगा । लेकिन मेरे पेट ने तो भारतीय सत्ता शीर्ष से प्रेरणा ले रखी थी कितना भी दबाएं, मरोड़े ,मसलें गरियाएं आंतड़ियों तक ने जुंबा खोलने से इन्कार कर दिया । सारे बाह्य दबाव असफल हो गए  मैं बार बार कमोड की परिक्रमा कर कुछ जतन हो ऐसा सोच कर उठता बैठता रहा तभी निराला कौंधें " अबे ! बाहर निकल मैं कोई हव्वा हूँ जो तुझे खा जाऊंगा " याद आते ही आधा इंच की मुस्कान तैर गई लेकिन जितनी रफ्तार से वो आई थी उसी रफ्तार से तिरोहित भी हो गई और बाबा निराला भी छोड़कर लौट गए ।


          डाक्टर को शिकायत दर्ज कराई तो धैर्य रखिए का संक्षिप्त उत्तर मिला । अन्त में जब पेट गैस गोदाम बन गया और कोई उपाय शेष न बचा तो खाना पीना छूट गया । सुबह और शाम दोनों वक्त की पैक भोजन की थालियां जब सफाई वाले उठाकर ले गए तब देर रात को कब्ज निवारण हेतु शेक नुमा दवा लिक्विड रूप में आयी । लगातार आठ आठ घन्टे तक दो दो ढक्कन गटकने के बाद जाकर जाम पड़े इंजन में हरकत हुई । लेकिन अब दूसरा डर सताने लगा था । मलबद्धता के कारण जोर लगने पर पाइल्स के फटने और धाव होने का खतरा सामने था । खैर हिम्मत करके कमोड सम्भाला शुक्र है धीरे धीरे स्मूथ स्टूल पास हुआ वो भी दिन में चार पांच बार में जाकर । लगा जैसे पेट के ही नहीं मन के गुबार और तन के तनाव भी हल्के पड़े हैं ।इस भागमभाग और हांफने झांपने की प्रक्रिया ने शरीर को निचौड़ कर रख दिया सो निडाल होकर बैड पर जा गिरा । इसी बीच डाइटीशियन का दौरा हुआ खाने के बारे पूछा तो बता दिया मन नहीं है । लेकिन वे महिला अधिक सतर्क थी । उसने मेरे लिए सुबह शाम दलिया और खिचड़ी प्रसक्राइब कर सलाद नीबू आदि की मात्रा बढा दी । अनमने भाव से तीन दिन यानी 6टाइम यही गटकता रहा फिर डाइटीशियन ने वापस मेरी थाली को होगरियों की ओर मोड़ दिया। होगरा यानी जैसलमेरी भाषा में बाजरी की मोटी मोटी रोटियाँ , यहां बाजरी तो नहीं लेकिन गेंहूँ की चार चपातियां सिल्वर फाइल में लिपट कर आयीं । बड़ी मुश्किल से एक दो चपातियां कोर कोर करके दाल आदि के साथ ठूंसी ।

          जब थोड़ सम्भला तो कमरे , कोरीडोर, डाक्टर नर्सिंग काउन्टर सहित जहाँ जहाँ से गुजरा था सब याद किया । सपाट दीवारों के अलावा कुछ नहीं । न भगवान न पहलवान कोई चित्र नहीं कोई साया नहीं । अस्पताल जब बना था भगवान जी की माया सर्वोपरी थी उस दिन सारे खास  मेहमान और मेडिकल प्रोफेसर और डाक्टर उनके मन्दिर में परिक्रमा कर रहे थे आज वे भगवान मोटे मोटे स्टील फ्रेम के साथ शीशे की दीवारों में फुल क्वारेन्टिन थे वहाँ कोई जा नहीं सकता था और सफेद  अप्रेन में समाए पीपीपी किट पहने नए भगवानों के पीछे बदहवास भीड़ भाग रही थी नए भगवान भक्तों की हैसियत तौल में लगे थे कभी धमकाते, कभी सहलाते कभी दुत्कारते भीड़ को आगे पीछे दौड़ा रहे थे । जो डाक्टर तक पंहुंच जाता वो जंग जीतने के भाव से देखता लेकिन मौत के मंजर नें वहाँ मुस्कानों तक सख्त पहरा बैठा रखा था।

          पीछे घर पर सरोज जी (पत्नी) को पोजिटिव छोड़ कर मैं ने अस्पताल की राह पकड़ी थी । मेरी घर पर  मौजूदगी में ही मेरी बेटी निमिषा अपने परिवार को छोड़कर हमें संभालने के लिए आ चुकी थी। मेरे लाख मना करने पर भी वह नहीं मानी और अंत में जब मैं अस्पताल रवाना हुआ तब वही अकेली मेरी श्रीमती जी को संभालने के लिए मोर्चे पर डटी हुई थी । दिन भर अपनी ऑनलाइन क्लास लेना और साथ ही साथ अपनी मां का ख्याल रखना उसके जीवन का हिस्सा बन गया था । दिन में दस दस बार वह मुझे फोन कर निर्देश देती, संभालती सहलाती  और इस तरह और इस तरह बेटियां  क्या होती हैं इसका जीवंत आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया उसने । न कभी डरी न सहमी न हताश हुई अपनी सुरक्षा का पूरा खयाल रखते हुए हमेशा हमें संभले रखा । सच ही कहा है किसी ने बेटियां भगवान का दूसरा अवतार होती है। इधर स्वयं अस्तपस्त बेहाल मैडम मेरी सांसों की रफ्तार फोन पर ही पढ कर खुद में समाए चिकित्सक पिता और पुरानी दादियों, नानियों के सारे प्राकृतिक योगादि के नुश्खे सुझाती रही ।


          पिछले लोग डाउन पीरियड में मैंने एक कहानी लिखी थी शीर्षक था " बेटा हो तो......" पत्रिका सहित कई स्थानों पर यह कहानी छपी बहुत चर्चित रही थी । बहुत से लोगों ने पसंद किया और मुझे भी संतोष हुआ  था । आज कहानी के नायक की तरह एक शख्स बेहद अप्रत्याशित रूप से मेरे कक्ष में उपस्थित हुआ । पीपीपी किट पहना हुआ चेहरे पर मास्क और शील्ड लगी हुई । कैसे हैं, आप दवा ले रहे हैं, बुखार तो नहीं है, कुछ ऐसे ही सवाल पूछने के बाद जब मैंने उत्तर दिया कि हां अब बुखार नियंत्रण में है तो सामने खड़े नौजवान ने अपने चेहरे से शील्ड हटाई और धीरे से झुक कर दोनों हाथ जोड़ते हुए बोला पापा जय श्री कृष्णा । अप्रत्याशित रूप से इस संबोधन और भाव को देखकर आंखों में नमी तैर आई और गीलापन भी लेकिन उसके उभरने से पहले ही मैंने अपने को संभाल लिया। बेटा हमें ठीक उसी तरह मेरे कमरे में था जैसे मैंने कहानी में डॉक्टर नायक की कल्पना की थी । बेटा देहरादून में अपने परिवार सहित पोजिटिव हो चुका था लेकिन जब हमारे पॉजिटिव होकर बीमार होने की खबरें वहां तक पहुंची तो उसने छह-सात दिन दवा खा कर खुद को संभाला पुत्रवधू सुमन भी जैसे तैसे दवा लेकर तैयार हुई और चारों लोग केशू और पीहू सहित 8 घंटे की लंबी जर्नी के बाद सीधे जयपुर आ पहुंचे । एक दिन भी घर पर रुके बिना बेटा सीधा अस्पताल पहुंचा और उसने जो हौसला दिया कहने की जरूरत नहीं है हां मैंने आधा घंटे में उसे ही उसे कह दिए  कि तू जल्दी घर लौट जा क्योंकि मैं नहीं चाहता था कि अस्पताल में रहकर वह खुद और अधिक समस्या ग्रस्त हो जाए।


निरंतर जारी....



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