साहित्य चक्र

06 June 2021

बेटी का चीख





सिसक रही माँ के गर्भ में चीख रही लाडली 
मौन ध्वनि में करती सवाल अंकुरित कली 
न जन्म दे माँ तू मुझे न बौझ बनूँ अपनो पर 
लगता है डर मुझे नोंचने को भेड़िये है तत्पर 
नाजुक सी कली में हर वक़्त शूलों पर चली 
सिसक रही माँ के गर्भ में चीख रही लाडली 

धीरे धीरे उड़ना सीखा नोंच दिये पर गिद्धों ने
छीन आजादी जकड़ लिया इन सीमाबद्धों ने 
घर से बाहर हर चौराहे पर भूखे भेड़ियों खडे़ 
निकले घर से बाहर बेटियां ये श्वान टूट पड़े 
फूल बनने से पहले ही कुचली जाती है कली 
सिसक रही माँ के गर्भ में चीख रही लाडली 

मेरे भी ख्वाब है माई मैं भी आगें बढ़ती रहूँ 
संकटों का चीर सीना हर मंजिल चढ़ती रहूँ 
किंतु बेटी के जन्म से पापा लग जातें कमाने
बड़ी होकर बेटी उनकी लगती है समझाने 
बाहों के झूले में झूली ममता की छांव पली 
सिसक रही माँ के गर्भ में चीख रही लाडली 

रात दिन मेहनत करके बाबा ने मुझे पढ़ाया
बन जाऊंगी काबिल एकदिन आगें बढ़ाया 
लेकिन क्यों ब्याह के माई यूँ पराया बनाया 
खुशियाँ बचपन से मिली अब क्यों रूलाया
सौदा किया क्यों बाबा क्या मैं इतनी खली 
सिसक रही माँ के गर्भ में चीख रही लाडली 

सारी जमा पूंजी लगा दी दहेज के खातिर
जन्मजात भिखारी दहेज लोभी हैं शातिर
गलती नही किसी की बस कर्म का है लेखा 
दहेज के गिद्धों में बाबा हमने हंस है देखा
घुट घुट कर दम घुट रहा है बंद है सांस नली
सिसक रही माँ के गर्भ में चीख रही लाडली 

अधम सोच नीच मनुष्य रोज प्रताड़ित करते
भिखारिन कहकर रोज यूं अपमानित करते 
कहीं बार मुझे श्वानों ने दर्द का विष पिलाया
केरोसीन से एक दिन मुझे जिंदा है जलाया 
इन भेडियो में दया नहीं मैं तड़प तड़प जली 
सिसक रही माँ के गर्भ में चीख रही लाडली


                                             आरती शर्मा आरू


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