साहित्य चक्र

02 May 2021

बेचारे बच्चे



गाय के दूध से
पलते हैं
इंसानों के बच्चे,
तरसते रह जाते हैं
उनके बछड़े।

मुर्गी के अण्डों से
भरते हैं
इंसानों के पेट,
अजन्में रह जाते हैं
उनके चूज़े।

जानवरों के मांस से
सजते हैं
इंसानों के मेज,
इंतजार में रह जाते हैं
उनके बच्चे।

मजदूर के लहू से
बनते हैं
अमीरों के महल,
बेघर रह जाते हैं
उनके बच्चे।

किसान के अन्न से
कटते हैं
साहूकारों के ब्याज,
बंधुआ रह जाते हैं
उनके बच्चे।

कोई आश्चर्य नहीं
कि संसार में चलते
आ रहे
अन्याय के इस दस्तूर
की कीमत
सबसे ज्यादा चुकाते हैं
यहां के बच्चे।


                             जितेन्द्र कबीर


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