साहित्य चक्र

14 May 2021

"मथुरा का गुस्सा"




हाड़ कंपाती ठंड में मथुरा को गुस्सा तब आता है जब छह-सात घंटे चैन की नींद लेने के बाद कोई उनकी गरमा गरम रजाई में आकर बैठ जाए।बैठना तो दूर पैर भी तो डाल कर देखे।अरे आम जनता भले ही बैठी हो इस ठंड में सीधे आसमान के नीचे और सीधे धरती माता को अपनी तशरीफ़ सौपती हुई।मरे तो मर जाए हमें क्या।हम भले, हमारी नौकरी भली और यह गर्मागर्म रजाई।सरकारी मुलाज़िम होना हलुवा-पूड़ी थोड़े ही है कि मुंह खोला और खा गए गप्प से। जी हजूरी करो,तलवे चाटो, पानी भरो, मालिश करो,चिचौरी करो और खींसें तो हमेशा ही निपोरनी पड़ती हैं।

भले ही अभी-अभी भाई से झगड़ कर आए हो।अब उसी शहर में बने रहने के लिए भी चढ़ावा देना होता है क्योंकि ज्यादा चढ़ावा देने से ही ज्यादा चढ़ावा वापस आता है।दफ्तर की मेजें और मेजपोश बहुत काम आते हैं। इन पोशों के नीचे कुछ भी करने की स्वतंत्रता होती है।देश जो स्वतंत्र है।हुक्मरानों का बस चले तो पूरे देश पर ही देशपोश डाल दें। जब दूसरे देशों के हुक्मरान सैरसपाटे और व्यापार के लिए आए तो इन्हीं लाल मखमली देशपोशों पर सफेदपोश चलें।वाह! फिर देखो कैसी शान बढ़ती है देश की।जैसे गुलाब की पंखुड़ियों से ढके तालाब पर बगुला भगत शिकार की प्रतीक्षा कर रहें हो।उस दिन गांव के लक्ष्मण जिसे सब लक्खी कहते थे की बहू आ गई तैश में। खेत में सूखा पसरा था।खेत क्या,होगी कोई बीघा दो बीघा जमीन।कर्ज़ा लेकर अच्छे बीज लाया था।

बड़ी मिन्नतों के बाद दुकानदार ने एक रुपया भाव सस्ते भी किए थे।बड़ी उम्मीद से और संभल-संभल कर एक-एक बीज बोया था।सिंचाई का वक्त आया तो पानी की किल्लत।बिजली पहले से ही कट गई थी।अब पतंगों की बात अलग है। वे पहले पेंच लड़ाती फिर कटती हैं।यह बेचारी बिजली वह भी सरकारी बिजली। जहां देखा कि यह तो प्रकाश फैला रही है वैसे ही कट से काट दिया जाता है।खेती की सिंचाई की बात तो दूर पीने के पानी को भी तरसने लगे गले।एक टैंकर आया किंतु सरकारी मुलाजिम को ऊपर से आकाशवाणी के द्वारा पता चला कि टैंकर वापस लाना होगा।लक्खी की बहू लोकतांत्रिक तरीके से विरोध करने लगी।

लोगों का जमावड़ा हुआ जिसमें लुगाई ही ज्यादा थीं। लक्खी की बहू टैंकर के आगे लेट गई।उसकी सास और पड़ोसनें भी लेट गईं सड़क पर।ट्रैक्टर पर चढ़े ड्राइवर ने आकाशवाणी का पालन करते हुए लेटी हुई औरतों पर चढ़ा दिया ट्रेक्टर।लक्खी की बहू आगे के पहिए में ऐसी हिलग गई कि आगे का पहिया ही ऊंचा हो गया।घिसटती रही और सास के ऊपर तो बड़ा वाला पहिया ऐसे चढ़ा कि उसका वहीं पर कलीदा फट गया।बूढ़ी औरत के कपड़े,चप्पल और सड़क सब लाल हो गए।अरे स्वतंत्र भारत में ऐसा होता रहता है।स्वतंत्र जो है।खामख्वाह हैरान करते रहते हैं लोग।अमन चैन सब तो है। बताओ क्या पड़ी थी लक्खी की बहू को। गेहूं नहीं हुए तो सतुआ पियो,ज्यादा पौष्टिक होता है।सतुआ नहीं तो चना चबैना मांग लाती।मांगने वालों पर तो हमारा देश बहुत मेहरबान रहता है।

इंद्र ने कर्ण से मांगा तो उसने कवच कुंडल दे दिए।सीता से रावण ने मांगा तो स्त्री सीमा तोड़ दी। द्रोणाचार्य ने एकलव्य से अंगूठा मांगा तो अंगूठा काट कर दे दिया।देने वालों की कमी थोड़े ही है।यहां मांग-मांग कर पेट भर ही सकती थी।फालतू में अपनी जान गवांई।औरत की जात। सड़क पर लेटना शोभा देता है कहीं।अरे! पानी की ही तो बात थी। दानसाई वाले पोखर चली जाती।अरे जानवर मरे कितने दिन बीत गए।अब तो शुद्ध हो गया होगा पानी और मान लो वही गंदा पानी पी भी लेगी तब भी पेट तो पेट ही बना रहेगा,पैर थोड़े ही बन जाएगा जो हमारी गरमा गरम रजाई में टांग अड़ाने की ज़ुर्रत करे।

                                                                          रश्मि चौधरी

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