साहित्य चक्र

27 November 2025

आज की प्रमुख रचनाएँ- 27 नवंबर 2025





विधा अतुकांत,
हां मैं कविता हूं
मन की धरा पर भावों की कविता
प्रथम जो हुई थी प्रस्फुटित,
वह क्रोंच पंक्षी के प्रेमी युगल की
पीड़ा को देख हुई थी घटित।
उस पीड़ा के अनुभव से,
हुए थे बाल्मिकी द्रवित।
और तत्क्षण ही जो शब्द,
हुआ था उच्चरित।
वही तो था प्रथम कालजयी कविता।
मन की धरा पर भावों की कविता।
हां मैं कविता हूं
जो मन की धरा पर छुपकर
चित्र उकेरा करती हूं।
पीड़ा की नमी पाकर,
नव पल्लव सा मै खिलती हूं।
मै ही तो राधा बनकर
श्याम की बंशी बजाती हूं
मैं ही तो बनकर मीरा
भक्ति की राह दिखाती हूं
मैं ही द्रौपदी के चीड़ में
पीड़ा बनकर रोई हूं
मै ही तो अहिल्या बन,
निष्पाप कलंकित के अश्रु से
पाषाण बन कर सोई हूं,
हां मै ही तो हर मन की धरा पर
भावों की कविता हूं,
नेह, प्रेम व पीड़ा से सिंचित होकर
कवि के उर में बिखरती हूं।
हां मैं कविता हूं।


- रत्ना बापुली


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अपने जमाने की किताब थे,आप
रोशन करते हर दिल,
वो आफताब थे,आप।

कभी जो याद आओगे तो,
जमाने को बताएंगे हम,
देखो ऐसे थे,हमारे प्यारे धरम।

आपकी देख कर ही,
सजती थी महफिल,
आपको देख कर ही ,
लगाया था आशिकों ने अपना दिल।

बहुत कुछ दे गए,जीना हमको सिखा गए,
जब जरूरत थी हमको आपकी,
सारी खुशियां समेटे,
हमें तन्हा  हमें रुला गए।


                                        - रोशन कुमार झा



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मैं भारत का संविधान हूं
जन जन की आवाज़ हूं
भारत का गौरव हूं
आमजन का अभिमान हूं
मैं देश का एकसूत्र हूं
मैं स्वतंत्रता का श्वास हूं
निष्पक्षता का आगार हूं
व्यवस्थापिका की व्यवस्था हूं
कार्यपालिका का कार्य हूं
न्यायपालिका का न्याय हूं
मीडिया की अभिव्यक्ति हूं
स्वायत्तशासी संस्थानों की उन्मुक्त स्वतंत्रता हूं
लोकतंत्र का गुणगान हूं
मैं भारत का संविधान हूं
मैं समता का वादा हूं
मैं करूणा की संवेदना हूं
मैं मानवता का पोषक हूं
मैं जनकल्याण में निहित हूं
मैं अंतिम छोर तक का संबल हूं
मैं मौलिक अधिकारों का बोध हूं
कर्त्तव्यों की चेतना हूं
नीति निर्देशक में सरकारों का दर्पण हूं
संवैधानिक उपचारों का अर्पण हूं
राष्ट्रपति का अभिभाषण हूं
प्रधानमंत्री का सदन हूं
मैं भारत का भाग्य विधान हूं
मैं संसद की मुखर आवाज़ हूं
मैं विधानसभा की विधायका हूं
समता, समानता और स्वतंत्रता का पूरजोर हूं
समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता का ईमान हूं
वैज्ञानिक दृष्टिकोण का आगाज़ हूं
प्रेम, भाईचारा और मोहब्बत का पैगाम हूं
दयालुता- करूणा मेरे प्राण हैं
मैं जन जन का सुरक्षा कवच हूं
मैं लचीला हूं
मैं कठोर हूं
मैं भारत का संविधान हूं
मैं बाबा साहेब के सपनों का भाव हूं
मैं शांति का पैगाम हूं
वैश्विक बंधुत्व का साथी हूं
हां!
राष्ट्र की एकता और अखंडता का प्रण हूं
मैं भारत के लोगों का प्राण हूं
मैं भारत का संविधान हूं।


- जितेन्द्र कुमार बोयल


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अंगीकृत हुआ था संविधान
आज के ही दिन,
मिटा था ऊंच नीच का भाव,
आया था समान विधान,
हर्षित हुआ था मन,
साथ में खुशी थी आई
संविधान दिवस की सभी
भारत वासियों को बहुत बहुत बधाई...
अधिकार मिले थे भारतीयों को
हटा था फिरंगियो का चाबुक,
छोड़ना पड़ा था देश उन्हें
जाना पड़ा था इंग्लैड,
हर्षित हुए थे भारतीय,
आया था कानून का शासन,
अंगीकृत हुआ था संविधान
सभी ने खुशी थीं मनाई,
संविधान दिवस की सभी
भारत वासियों को बहुत बहुत बधाई...
प्रेम, भाईचारा और मोहब्बत का सबक
सिखाता है संविधान,
समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और
सहिष्णुता का ईमान हैं संविधान,
बाबा साहेब अंबेडकर के सपनों को
पूरा करने और शांति का पैग़ाम देता है संविधान,
जनमानस की भावनाओं की पूर्ति कर,
सभी के कल्याण की कामना करता है संविधान,
अंगीकृत हुआ था संविधान आज के दिन,
सभी ने खुशी थीं मनाई,
संविधान दिवस की सभी
भारत वासियों को बहुत बहुत बधाई...

- बाबू राम धीमान


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मोह का बन्धन

अंतिम श्वास को बिखेर कर,
मोह माया में फसी हूँ।
आश का दीपक जला,
इन नातों में धसी हूँ।
ये बूंदें याद कराती हैं,
उन बीते पलों को।
जिनकी ओट में,
जीवन सवार बैठी हूँ।
उन प्रीतों को आज़ाद कर,
आज सबसे मुँह फेर लेटी हूँ।
इन सुरभि की छाया में,
उस मोक्ष का नशा है।
जिसमें मिलेंगे मेरे महाकाल,
आज उस श्मशान में मेरी अतिंम दशा है।


- ऋषिता सिंह


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कच्चे दीवारों वाला मकान लौटा दे,
कोई तो मुझे मेरे आंगन का वो शाम लौटा दे।

वो सूरज की पहली किरण,
और वो सुबह-सुबह मुर्गे की बांग लौटा दे।
जब हम जाने जाते थे अपनी बड़ों के नामों से,
बस वही पापा वाला पहचान लौटा दे।

बस वही शाम लौटा दे।
जो हम दूसरे के बागों से चुराया करते थे,
फिर वही बागों वाला कच्चा आम लौटा दे।

बिना बोले जो समझ लेते थे हर दुःख-दर्द को,
पड़ोसियों में बस वही इंसान लौटा दे।
कोई तो हो जो वो मेरा भारत महान लौटा दे।


- नंदिनी चौधरी


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इंसानों की अदालतें बस फ़ैसले सुनाती हैं,
पर न्याय की असली राह कहीं और ले जाती है।

शब्दों का वजन बदल जाता है हालातों के साथ,
कभी सत्य हार जाता है, कभी झूठ को मिलती है मात।

न्याय के नाम पर खुली सब दुकानें हैं,
हर तरफ़ फुसफुसाहट, हर तरफ़ स्वार्थ की राहें हैं।

इंसानों से न्याय की उम्मीद रखना व्यर्थ है,
वे भी तो डर और स्वार्थ की जंजीरों में बंधे रहते हैं।

सच्चा न्याय वहीं मिलता है, जहाँ मन शांत होता है,
जहाँ ईश्वर की नजर सब पर बराबर होती है।

वही जानता है छुपा दर्द, वही पहचानता है सच्चाई,
वही देता है सही फ़ैसला, जहां न कोई अन्याय की परछाई।

इसलिए झुको मत, टूटो मत, उम्मीद की लौ जलाए रखो,
न्याय पाना है तो ईश्वर से ही मांगो।


- रजनी उपाध्याय


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एकता, समता की पहचान रहे;
दुनिया का सबसे बड़ा संविधान रहे ;

अम्बेडकर जी सदा चमकते रहे;
दर्प से भरा आसमान रहे ;

अपने परिवार की कुर्बानी दी है ;
आलम में हमेशा अहसान रहे;

सबका उद्धार सबका सम्मान ;
मानव मानव एक समान रहे;

सब लोग पढ़े लिखे इस देश में ;
जिंदाबाद मेरा हिंदुस्तान रहे ;

स्त्री हो या पुरुष हो;
दुनियां में अलग पहचान रहे;

पृथी भले ही मिट जाए;
लाज़िम है चांद पर निशान रहे ;

फिजा में प्रेम की गूंज गूंजती रहे;
दुश्मन हमेशा परेशान रहे;

हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई ;
वफ़ा के जन्नत में इंसान रहे ;

नफरती दीवार ढह जाए;
करुणा भाव से भरा मकान रहे;

शरहद महफूज रहे;
सुरक्षित हमारे नौवजवान रहे;

खेतो में सोने की बारिश हो;
खुशहाल देश का किसान रहे।


- सदानंद गाजीपुरी


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शराबी

किसी के लिए सुकून है तो,
किसी के लिए जुनून है शराब
किसी के लिए दवा है ग़म भुलाने की
तो किसी के लिए खून है शराब
ये अक्सर उजाड़ देती है हंसते खेलते घर,
मगर शराबियों के लिए बड़ी हसीन है शराब।
ये वो नशा है जो रिश्तों को खा लेता है,
अपनों से ही नफरत करा देती है शराब।
कम पढ़े लिखे होने का दुख भुलाकर,
बिना पढ़े ही इंग्लिश बुला देती है शराब।
इंसान को सिखा देती है हालात से समझौता करना,
कई बार नाली में ही बिस्तर लगा देती है शराब।
बेरोजगार को व्यापार सिखाकर,
घर के बर्तन भांडे सब बिकवा देती है शराब।
मां , बेटी, बहन और बीवी का शोषण कर,
इंसान को हैवान बना देती है शराब।
ना जिंदा रखती है ना आसानी से मरने देती है,
गुर्दे , लिवर , फेफड़े सब गला देती है शराब।
भुला देती है सारी तहजीब और संस्कार,
कई बार मौत की नींद भी सुला देती है शराब।
माना कि शराबी की जान शराब होती है
मगर छोड़ दीजिए ये चीज बहुत खराब होती है।


- मंजू सागर


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ममतामयी है माँ
मां तेरे नेत्रों में है प्रेम सिंधु
तेरे शब्दों में है स्नेह अपार
वात्सल्य की तुम मूरत हो
तुम हो ममता की कामधेनु
मां तुम हो ईश्वर साक्षात
मां तेरी गोद है
अनंत सुखों की खान
माँ तुम ही हो प्रथम शिक्षक
देती हो संतान को
अच्छे संस्कार एवं सर्वोत्तम ज्ञान
मां तुम हो अनूठी, तुम हो अत्यंत प्रिय
तुम्हारा अगाध, निश्छल प्रेम पाने,
तेरे मातृत्व का सुख पाने
मेरे प्रभु कभी राम,तो कभी श्याम
बन कर बसुधा पर चले आते हैं
धन्य हो ममतामयी, वात्सल्यमयी मां
तुम्हारे गुणों को शब्दों में
कैसे करूं बयां
शब्दों से परे हो तुम मां
बारंबार तुम्हें नमन है मां


- प्रवीण कुमार


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अपना होना चाहिए गुणगान

बिना तार के इस ज़माने में चलते हैं फोन
लकड़ी बिना जलाये चलती है गैस
कारें बिना चाबी के चल रही
बिना घी के रोटी खाकर कर रहे सब ऐश

बिना ट्यूब के चलते पहिये
बिना बाजू के हो गए परिधान
युवा दर दर घूमें होकर बेरोजगार
नेताओं को शर्म नहीं जो दें इस बात पर ध्यान

रिश्ते हो गए बेमतलब के
नज़रिया हो गया बेपरवाह
पत्नियों को डर नहीं पति का
उलझते रहते खाहमखाह

भावनाएं किसी में रही नहीं
शिक्षा हो गई बिल्कुल बेकार
संस्कार विहीन हो गए बच्चे
छोड़ दिये बुजुर्ग और घरबार

शान हमारी फिर भी अनोखी
उम्मीदे उड़ती फिरती आसमान
काम कोई नहीं करना चाहता
यह देखकर खामोश हो गई ज़ुबान

खा रहे सब बी पी मधुमेह की दवाई
संस्कार बिना किस काम की पढ़ाई
संवेदनहीन हो गए परवाह नहीं किसी की
तैयार बैठे रहते हैं करने को लड़ाई

अहंकारी बड़े खुद की इज़्ज़त को देते अधिमान
स्वार्थी और मतलबी हो गया इंसान
अपनी अपनी पड़ी है सबको दूसरों से क्या लेना
अपना ही चाहिए सबको गुणगान


- रवींद्र कुमार शर्मा


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