बीते सप्ताह की ख़बरों पर नज़र डालें तो
दिल दहलाने वाली घटनाएँ सामने आती हैं।
देश के अलग-अलग हिस्सों से ऐसी खबरें मिल रही हैं,
जिन्हें पढ़कर मन सन्न रह जाता है।
अभी उम्र सीखने, समझने और सपने देखने की होती है,
और हमारे नौनिहाल ज़िंदगी से हार मान रहे हैं।
सवाल यही है- आख़िर क्यों ?
क्या वाकई परिस्थितियाँ इतनी कठिन हो गई हैं ?
या फिर कहीं हमारी परवरिश, हमारा समय, हमारा साथ-
इन सबमें कोई कमी रह गई है?
बाहरी दुनिया तो कभी पूरी तरह अनुकूल हुई ही नहीं।
समस्याएँ थीं, हैं और रहेंगी।
पर दुखद यह है कि जब कोई बच्चा यह भयावह कदम उठा लेता है,
तो उसके बाद बाहरी दुनिया को दोष देने
से कुछ भी वापस नहीं आता।
हमारे पुरखों ने एक गहरी सीख दी थी-
“पूरी दुनिया में कालीन बिछाने की कोशिश मत करो,
अपने पैर में चप्पल पहन लो।”
अर्थ साफ है-दुनिया आपके अनुसार नहीं बदलेगी,
किंतु हम अपने बच्चों को इतना सक्षम ज़रूर बना सकते हैं
कि वे उस दुनिया में आत्मविश्वास के साथ चल सकें।
आज हर घटना के बाद यही प्रश्न उठता है-
किस-किस से लड़ें?
किस-किस से न्याय मांगें?
और मान लें कि संघर्ष से कोई बदलाव हो भी जाए,
तो क्या यह तय है कि ऐसी घटना फिर नहीं होगी?
सबसे बड़ा बदलाव घरों के भीतर आना चाहिए।
बच्चों की चुप्पी को सुनना सीखें
अक्सर हम बच्चा चुप हो जाए तो राहत मान लेते हैं।
पर सच यह है कि बच्चों की चुप्पी शोर से कहीं ज़्यादा खतरनाक होती है।
उनके भीतर चल रही उथल-पुथल का अंदाज़ माता-पिता को सबसे पहले होना चाहिए।
अच्छे कपड़े, अच्छे स्कूल, अच्छे गैजेट- ये सब ज़रूरी हैं,
लेकिन बच्चों को चाहिए आपका समय, आपकी बातचीत,
आपका भरोसा और उनका भावनात्मक सहारा।
उन्हें यह महसूस होना चाहिए कि-
वे अपनी बात कह सकते हैं,
वे गलती कर सकते हैं,
वे कमजोर पड़ने पर भी स्वीकारे जाएंगे,
घर उनका सुरक्षित स्थान है।
अदृश्य दबाव, दिखती हुई त्रासदी
आज का बच्चा प्रतियोगिता से पहले तुलना से हारता है।
किसी की रैंक, किसी का रिज़ल्ट, किसी की उपलब्धि-
लगातार अपने आपको दूसरों के पैमाने पर नापते-नापते
उनके भीतर हीनभावना घर कर जाती है।
सोशल मीडिया इस आग में घी का काम करता है।
उनके मन में यह छवि बनती जाती है कि वे पर्याप्त नहीं हैं।
यहीं से उनकी लड़ाई खुद से शुरू होती है-
और धीरे-धीरे वे हारने लगते हैं।
एक बच्चा खोकर माता-पिता जीवन भर खो जाते हैं
किसी माता-पिता पर जब ऐसी अनहोनी टूटती है,
तो वे बाहर से चाहे सामान्य दिखें,
पर भीतर से टूटकर बस एक ज़िंदा लाश बन जाते हैं।
सांसें चलती हैं, पर जीवन कहीं पीछे छूट जाता है।
एक खालीपन, एक टीस हमेशा के लिए दिल में बैठ जाती है।
यह सिर्फ एक घटना नहीं होती-
यह पूरे परिवार के अस्तित्व को हिला देती है।
अब हमें क्या करना चाहिए ?
घर में रोज़ कुछ मिनट खुलकर बात करें।
बच्चों को सुनें, डांटने से ज़्यादा समझें।
भावनाओं को दबाने की जगह स्वीकारने की आदत डालें।
पढ़ाई से ज़्यादा मानसिक स्वास्थ्य को महत्व दें।
बच्चों को यह भरोसा दें कि वे “परिणाम” नहीं, आपके बच्चे हैं।
उनकी किसी से तुलना न करें।
बच्चों को यह भरोसा दिलाएँ
कि वे सिर्फ अंकों और उपलब्धियों का नाम नहीं,
बल्कि परिवार का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।
और सबसे ज़रूरी- उन्हें जीवन का महत्व समझाएँ।
अंत में...
बच्चों की मानसिक मजबूती ही भविष्य की सुरक्षा है।
अगर हम आज उनके मन को समझने के लिए समय निकालें,
उन्हें अपनापन और विश्वास दें,
तो कल शायद कोई बच्चा कठिनाई से
घबराकर गलत कदम नहीं उठाएगा।
समस्या जितनी बड़ी दिख रही है, समाधान उतना ही सरल है-
इसका समाधान न तो किसी एक संस्था के पास है
और न किसी एक व्यवस्था के पास।
यह जिम्मेदारी पूरे समाज की है-
और सबसे पहले उन परिवारों की,
जहाँ बच्चे अपनी पहली सीख प्राप्त करते हैं।
अपने बच्चों का भावनात्मक हाथ थाम लीजिए।
उनके भीतर वह शक्ति जगाइए,
जो दुनिया की कठिनाइयों से लड़ सके।
अगर हम आज ध्यान दे दें,
तो शायद कोई परिवार कल एक अंधेरे से बच जाए,
और एक बच्चा फिर अपने सपनों की ओर लौट सके।
- कंचन चौहान, बीकानेर

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