साहित्य चक्र

29 May 2021

काश कभी ऐसा होता





भ्रष्ट गरीबी और लाचारी, छोड़ अगर बाहर आते
ज्ञान मशाल हाथ में लेकर, विश्व गुरू हम बन जाते
मतिभ्रम बिमुख मार्ग से जग को, उचित राह हम दिखलाते
श्रुति ज्ञान मार्तण्ड रश्मि बन, तमस धीय को हटवाते
दीन हीन बन जगत में कोई, भूखे पेट नहीं सोता
गर्व से कहते मानव हूंँ मैं, काश कभी ऐसा होता

भाव बदलता देश प्रेम कर, कार्य राष्ट्र का मैं करता
भूख भ्रष्ट लाचार गरीबी, शब्द देश में ना रहता
अंत: करण प्रेममयी गंगा, जनमानस के हृदय बहता
नाम बताता बाद कही, "मानव" हूंँ हर जन कहता
हंँसी गूंँजती हर पल हरदम, बिलख नहीं कोई रोता
ग्लानि हानि ईर्ष्या नहीं होती, काश कभी ऐसा होता

बिना डरे ही अपनी बातें, विश्व पटल पर कह जाते
झूठ बिना ही जीवन होता, काश ये मौका हम पाते
छीन झपट के नहीं कभी, बांँट जरा रोटी खाते
वसुधा बनती घर अपना, भयभीत नहीं कोई होता
सपने सच अब होने लगते, काश कभी ऐसा होता
काश कभी ऐसा होता


                                   डॉ. सारिका ठाकुर “जागृति”


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