साहित्य चक्र

30 November 2025

आज की प्रमुख कविताएँ- 01 दिसंबर 2025









मेरे आंसुओं की बूंदों से
एक बाल्टी भर गई,
उसे देख कर दिल में
एक तमन्ना सी दौड़ गई ,
देखता ही रह गया मैं
उस बाल्टी की ओर,
मेरे देखते ही देखते
एक सिरहन सी दौड़ गई
मेरे आंसुओं की बूंदों से
एक बाल्टी भर गई...

सोच रहा था मैं बड़े ध्यान से
क्यों न इसका
सदुपयोग कर लिया जाए?
बदल कर इसको शुद्ध जल में
क्यों न स्नान में काम ले लिया जाए,
लाखों खर्च करके विभाग
लगा रहा है साइन बोर्ड -
जल है तो कल है,
मैं इस पर चिन्तन कर ही रहा था
कि मुझे रोक लिया मेरे ही उस
कमबख्त विचार ने, और कहा -
रुको! ज़रा तनिक तो सोचो,
क्या कहेंगे लोग? चिन्तन तो कर,
मैं चिन्तन करने लगा और दोबारा
एक सिरहन सी दौड़ गई
मेरे आंसुओं की बूंदों से
एक बाल्टी भर गई...

मैं सोच ही रहा था कि
मन में एक विचार आ गया
दौड़ता हुआ वह मेरे पास आ गया,
कहने लगा मुझसे क्या हुआ तुम्हें ?
ज़रा मुझे भी बताओ, मैंने कहा-
क्या बताऊं तुम्हें ?
अजीब स्थिति के फेर बहुत बुरा फंसा हूं,
लोग क्या कहेंगे मुझे?
"आंसुओं की बूंदों से यदि स्नान कर लूँ "
इस पर चिन्तन कर रहा हूं,
उसने मुझसे कहा- क्या बुराई है इसमें?
लोगों का क्या ? लोग तो कहते ही है,
मैं सोच ही रहा था और एक सिरहन
सी दोबारा दौड़ गई,
नज़र उठा कर जब मैंने देखा
तो वही "आंसुओं की बूंदें "
मेरे गालों से उतर गई , मेरी कल्पना
मेरे सोचते ही हवाई हो गई
मेरे आंसुओं की बूंदों से
एक बाल्टी भर गई...


- बाबू राम धीमान


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दिल्ली की हवा दमघोटू क्यों ?

दिल्ली की हवा
अब हवा नहीं रही,
एक बोझ है-
जो हर सांस के साथ
फेफड़ों पर रखा
पत्थर-सा लगता है।

यमुना की ठंडी लहरों से
जो शहर कभी महकता था,
आज उसी शहर के आसमान पर
धुएँ की राख चिपकी है-
मानो बादल भी
साँस लेने से डरते हों।

दिल्ली की हवा दमघोटू क्यों हुई?
क्योंकि सड़कों पर
गाड़ियों का मज़दूर-सा थकता धुआँ,
फैक्ट्रियों का अनवरत ज़हर,
और दूर-दूर तक फैली
लापरवाही की चादर
एक साथ मिलकर
आसमान का गला दबा देती है।

यहाँ सुबह सूरज नहीं उगता,
धुंध का धब्बा उगता है-
और शाम होते-होते
पूरा शहर
एक अदृश्य जेल में बदल जाता है,
जहाँ साँस लेना भी
एक संघर्ष बन गया है।

मास्क अब सुरक्षा नहीं,
मजबूरी है-
क्योंकि हवा में
इतना ज़हर घुल चुका है
कि बच्चे तक
खाँसी की आवाज़ के साथ
बड़े हो रहे हैं।

दिल्ली की हवा दमघोटू है-
पर ये उसकी किस्मत नहीं,
हमारी बनाई हुई सज़ा है।
जिस दिन हम
पेड़ों को दुश्मन नहीं,
सहारा समझेंगे,
और विकास को
धुएँ का पहाड़ नहीं,
हरियाली का रास्ता मानेंगे-
उसी दिन
दिल्ली फिर से
साँसों की राजधानी बनेगी।


- आरती कुशवाहा


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अगर भारत को विश्व गुरु बनाना है
मिटा दो जाति और धर्म के भेद को
भाषा और क्षेत्रवाद के भेद को
सबका धर्म हो मानवता और इंसानियत
हम रहें प्रेम और सौहार्द से
अगर भारत को विश्व गुरु बनाना है
हर तरह के आरक्षण को हटाना होगा
काबिल युवाओं को आगे लाना होगा
आतंकवाद - नक्सलवाद को मिलकर हराना होगा
विदेश बसे भारतीयों को वतन लाना होगा
प्रत्येक व्यक्ति को देश के विकास में लगाना होगा
अगर भारत को विश्व गुरु बनाना है
जाति- धर्म के नाम पर देश को
बाँटने वाले नेताओं को हराना होगा
सब्सिडी -मुफ्त में देश का धन बांटने वाले
नेताओं को राजनीति से हटाना होगा
देश से भुखमरी और महंगाई को हटाना होगा
बेरोजगारी को मिटाकर
प्रत्येक के लिए रोजगार जुटाना होगा
साथ ही प्रदूषण मुक्त
शुद्ध स्वच्छ भारत बनाना होगा
अगर भारत को विश्व गुरु बनाना है
युवा शक्ति को करना होगा जागृत
योग्य और शिक्षित लोग ही चलाएं सरकार
देशभक्ति देशप्रेम जिनकी रग- रग में हो
ऐसे देशप्रेमी ही करें देश का नेतृत्व
दें हमारे समाज को एक नवीन आकर
अगर हमारे प्यारे भारत को विश्व गुरु बनाना है


- प्रवीण कुमार


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क्या लगती है

जिन्हें ग़मों की हवा लगती है,
शराब भी उन्हें दवा लगती है!

देते हैं गालियाँ नफ़रत से जो,
गरीबों को वो दुआ लगती हैं!

होती हैं कमियाँ हसीनों में इतनी,
फ़िर भी आशिकों को अदा लगती हैं!

फिक्रमंद हूँ मैं एक तुम्हारी ख़ातिर,
यही बात उसे मेरी खता लगती है।

घर में महफ़ूज़ है आबरू तेरी,
ये उस नादान को सज़ा लगती है!

कोई तो आँसू बहाता है उम्र भर,
किसी को ज़िंदगी मज़ा लगती है!

तमाम सवालात हैं, ज़ेहन में मेरे,
अब तू ही बता तू मेरी क्या लगती है।


- आनन्द कुमार


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प्राकृति मेरी दुनिया

झील से खुशियों के अश्क बनाएंगे।
बर्फ के तहखानों से दिल बनाएंगे।
समंदर के मौजों से धड़कन बनाएंगे,
अंधेरों को काली आंखे बनाएंगे।
ओस के बूंदों से मोतियों के माला बनाएंगे।
फूलों के रसों से नदी,
तालाब, दरिया बनाएंगे।
वर्षा के नीर से अमृत बनाएंगे।
महो अंजुमन से आसियाना बनाएंगे।
सूर्य को महल का चराग़।
हरे भरे मैदानों से बिस्तर बनाएंगे।
ऊषा काल को ओढ़ने का चादर बनाएंगे
पर्वत ,पहाड़ों को गार्जियन बनाएगी।
सारे जनवरो को परिवार बनाएंगे।
हाथियों के झुंड को पहरेदार बनाएंगे।
हवाओं को यातायात का साधन बनाएंगे
बादल के टुकड़ों से रास्ता बनाएंगे।


- सदानंद गाजीपुरी


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इंसान होने का फ़र्ज़

औरों की तरफ बेवजह झांकने के बजाय,
अच्छा है कि अपने गिरेबान में झांका जाय।

दुनिया सुधारने में तो सब लगे हैं शिद्दत से,
अच्छा है कि पहले खुद को सुधारा जाए।

दूसरों की कमियां तो जल्दी ही आती हैं नजर,
मसला ये है अपनी कमियां कैसे नजर आए?

इशारा तो झट कर देते हैं कभी दूसरों की ओर,
बाकी तीन उंगलियों की तरफ कैसे नज़र जाए?

जब कभी भी उछाला जाता है दूसरों पर कीचड़,
अपने ऊपर पड़ने वाले छींटों से कैसे बचा जाए।

किसी के सुख में शामिल होने से अच्छा है,
किसी मजलूम के गम में शामिल हुआ जाए।

इंसान के रूप में तो सब जी रहे हैं दुनिया में,
इंसान वो है जो इंसान होने का फ़र्ज़ निभाए।


- राज कुमार कौंडल


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अखबार

तू हर रोज़ सुबह,चला आता है,
दुनिया की सारी, खबर दे जाता है।

बिना शोर किए,
कभी टी टेबल,
तो कभी डायनिंग टेबल,
या फिर आराम कुर्सी पर,
संग मेरे दो पल बिताता है।

खबरों से भरी होती है,
तुम्हारी थैली,
चाहे खबरें पड़ोस की हों,
या फिर हो दूर देश की।

तू खबरें ही नहीं,
भाव भी बताता है।
सराफा, दलहन, तिलहन के साथ,
नेत वन का ताव भी बताता है।

दवा, योग, निरोग
सब पर सलाह दे जाता है,
हर इतवार कुछ नया,
कुछ अलग किस्सा,
सुना जाता है।

हर सुबह होता,
तेरा बेसब्री से इंतजार,
इतना करते तुझपे ऐतबार।

तू ही है, अपना सारा समय,
दे जाता है।
आज भी नहीं बदला तू,
रिश्ते आज भी,
सारे निभा जाता है।


- रोशन कुमार झा


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वो मेरा बचपन और खेत

​वो बचपन की यादें, वो खेतों की मिट्टी,
जहाँ पैरों तले मेरे थी मेरी प्यारी धरती।
वो मेंढ़ों पे चलना, वो बेफ़िक्र हँसना,
हरियाली से लिपटा था, जीवन की हर रिश्ता।
​वो दूर तक फैले, सरसों के पीले खेत,
जैसे धरती ने ओढ़ी हो सोने की चादर।
उछालना कूदना भागना पतंगें उड़ाना,
ना फिक्र थी कल की, ना दुनिया दारी की।
​पिताजी का हल चलाना खेतों में,
और पीछे-पीछे मेरा दौड़कर जाना।
वो बैलगाड़ी की घर्र-घर्र, धीमी आवाज़,
लगता है जैसे कोई मीठा पुराना गाना।
​वो पेड़ों की छाँव में बैठकर खाना,
वो माँ के हाथ की ठंडी, रोटी और अचार।
पानी पीने को दौड़ना, कुएँ के पास,
था सबसे अच्छा हर दिन एक त्यौहार।
​वो बर्रे और तितली, वो मेंढकों का शोर,
वो खेत के किनारे आम जामुन का पेड़।
वो गीली दूब पर गिरना, फिर उठकर चलना,
बस यही था अपना, सबसे अमूल्य पल।
​अब शहरों में 'पार्क' हैं, 'फुटबॉल' का मैदान,
मगर उस खुली हवा की, खुश्बू कहाँ है?
वो मेरा भोला बचपन, वो खेतों की बातें,
अब बस तस्वीरों में, और यादों में ही ज़िंदा है।


- डॉ. मुश्ताक़ अहमद शाह


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दिव्य प्रेम

जब मैं शांत हो जाऊंगा
तुम अशांत हो उठोगे
हृदय के अंतकरण तक।

मेरा मौन
सदा के लिए तुम्हारे हृदय में
अशांति को विद्यमान कर देगा।

मेरे प्रेम की अभिव्यक्ति
तुम्हारे लिए करना
कठिन से भी कठिन हो जाएगी।

नव नासिका का
भेदन करता हुआ मैं
कभी दशम द्वार के
परमानंद के अमृत कलश का
अमृत पीता हूँ।

तो कभी अनाहत मैं बैठे
अपने इष्ट का स्पर्श कर
हंसता मुस्कुराता हुआ
फिर इस धरा पर
चुपचाप लौट आता हूं।

अपने अतृप्त हृदय के लिए
तुम्हें सहस्रार का भेदन कर
दिव्य प्रेम सरिता में
डूब कर मुझ में
लीन होना ही होगा।


- राजीव डोगरा


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