साहित्य चक्र

22 May 2021

जिंदगी...


             जिंदगी में....



बिखराव अंतर का हो तो खुद को समेटना ही ज़रूरी है....
हालात मन के हों जब बेकाबू तब ठहराब ज़रूरी है.....
कुछ लोग हों अपने साथ में ये टूटी आस में ज़रूरी है...
रुके जजवात हों दिल में तब दर्द बह जाना ज़रूरी है...
आँसू पोंछ दें चुपके से वे लोग "जिंदगी "में ज़रूरी हैं....
दस्तक बहुत थी खुशियों  में लोगों की मेरे  दर पर....
अँधेरों ने जब घेरा तब लोग जो  आए जिंदगी में....
वही ज़रूरी हैं.....
दरवाजे घर के खुले थे हमेशा ही लेकिन......
किसी की आहट  मुश्किल में
आना तो ज़रूरी है....
. खबरों के इंतजार में कान तो लगे हैं सबके....
लेकिन हौले से कानों में जो गुनगुनाये............
"मैं हूँ ना " बस अवाज  यही आना ज़रूरी है....
आहट अपनों के क़दमों की......
महसूस करना ज़रूरी है....
  यूँ तो रीत दुनिया की है यही दोस्तो.......
 सलाम करती है ये दुनिया चढ़ते सूरज को.......
ढलते सूरज के तो बस बनाती किस्से कहानी है........
अपने तो खबर ही नहीं लेते किस हाल में हैं...
जिनके वास्ते कभी ये जान भी हाजिर थी...
यही तो दस्तूर है दुनिया का इसे ही लोग कहते ...........
दुनियदारी हैं ....
अरे ओ सीख ले "गाफिल "यही तो असल दुनियादारी है..........
लोग सच ही कहते हैं अकल के कच्चे उनको............
खेलना आया नहीं जिनको जज्बातो से....
कैसे अनाड़ी से वे कच्चे खिलाड़ी हैं...

                                         पूजा नबीरा


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