साहित्य चक्र

15 May 2021

ग़ज़ल- आबरू


ख्व़ाब सारे बह गए,आंखों से अश्रु नीर बनकर।
शुष्क जीवन-धार को हम, देखते हैं तीर बनकर।

चाहते थे हम भी माया-मोह से,बस मुक्त होना,
चाहतों ने किन्तु मन को, जकड़ी है जंजीर बनकर।

जाति,मजहब में बंधे हैं,आज भी इंसान क्यों,
काट दें सब बंधनों को, प्रीत की तस्वीर बनकर।

हौसलों ने हर कदम पर,साथ जो हमको दिया,
मंजिलें भी पास आईं, शौक से तकदीर बनकर।

आबरू बेटी बहू  की, है नहीं महफूज आज,
कृष्ण भी आते नहीं अब, द्रौपदी का चीर बनकर।


                                           बिनोद बेगाना


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