साहित्य चक्र

14 November 2025

आज की प्रमुख कविताएँ- 14 नवंबर 2025





संबंध या अनुबंध

या सज बैठेगा फूल बनकर ,
या दाग बनकर दिखता रहेगा।
कभी चढ़ा दूं कभी मिटा दूं !
ये एहसास है कोई मिटने वाला रंग नहीं।

या पार लगेगी नैया ,
या बीच भंवर में डूब जाएगी।
वापिस उस छोर चला जाऊं !
ये बुजदिलों की जंग नहीं।

या तुम्हे खुद जैसा बना दूंगा,
या हो जाऊंगा काफिर तुझ जैसा।

बिन मंजिल पाए छोड़ दूं !
ये मतलबियों का संग नहीं।

या तो निभता रहेगा ,
या चुभता रहेगा उम्र भर ।
राजी खुशी खत्म कर दूं!
ये सम्बन्ध है अनुबंध नहीं

या मैं तुम्हें मना लूंगा ,
या तुम मुझे मना लेना।
सुलझने की जरा सी भी गुंजाइश न छोडूं!
ये भारत पाक की जंग नहीं।


- अशोक कुमार शर्मा


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किरदार अपना निभा रहा मानव
वक्त निकल जाने पर,
स्वार्थी बन झूमता मानव
भूल जाता वक्त अपना,
सामने आने पर नजरें चुराता मानव
दस्तूर बन गया है जमाने का दोस्त
कौन करता है परवाह किसी की
मतलब निकल जाने के बाद
और भूल जाता है मानव
किरदार अपना निभा रहा मानव...

नेकी करके दरिया में डाल दी हमने
रुखसत करके भी देख लिया,
फिर भी मन भरा नहीं,
आजमा के भी देख लिया
देखना चाहते हो तुम भी
शिद्दत से आजमा के देख लो
स्वार्थी बन चुका है आज मानव,
अपना बना के भी देख लो,
"धीमान" किस पर ऐतबार करें
खुद ही जहर घोल रहा मानव
किरदार अपना निभा रहा मानव...

मौकापरस्ती की सरजमीं पर खड़ा होकर
धोखा दे रहा मानव,
कौड़ियों के भाव खुद बिकने को
आज तैयार है मानव,
कितना भी पुरुषार्थ कर लें चाहे कोई
फ़िर भी भूलने का तैयार है मानव
"धीमान" प्रमाण किस-किस का दें
जब फ़िरकापरस्त बन गया है मानव
किरदार अपना निभा रहा मानव...


- बाबू राम धीमान


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कुछ रिश्ते भी सुई-धागे से होते हैं,
जितना सुलझाओ, उतना ही उलझते जाते हैं।

दिल की गिरहें जब ज़रा सी कस जाती हैं,
बातों की डोर में उलझन बस जाती है।

अहसास टकराते हैं ख़ामोशी के दामन से,
लफ़्ज़ बिखर जाते हैं ज़ुबाँ के आँगन से।

सुई चुभती है, पर जोड़ती भी वही,
धागा टूटा तो फिर सिलाई नहीं होती कहीं।

थोड़ी मोहब्बत, थोड़ा सब्र पिरो दो इसमें,
शायद फिर रिश्ता महक उठे तन्हाई के मौसम में।


- रजनी उपाध्याय


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प्यार के वो चार दिन...

प्यार के वो चार दिन, धूप जैसे प्यार थे,
दिल में उतरे चाँद से, ख़्वाब कितने यार थे।
प्यार के वो चार दिन...

धूप भी मुस्कान थी, छाँव में भी कुछ बात थी,
हर नज़र में ख़ुशबुएँ, हर दुआओं में रात थी।
होंठ कह न पाए जो, वो हवाओं में सुकून थी,
साँस भी तेरे बिना, कितनी अधूरी सी थी,
प्यार के वो चार दिन, यादों के उस पार थे,
प्यार के वो चार दिन...

बात आधी रह गई, ख़्वाब भी सूखे से हैं,
तेरी हँसी के बाद अब, ये शहर रूखे से हैं।
रात जागी, दिल जला, चाँद भी ख़ामोश है,
क्यों लगा हर मोड़ पे, तू अभी भी पास है,
प्यार के वो चार दिन, आँखों में इकरार थे,
प्यार के वो चार दिन...

ख़त जो लिखे तूने कभी, वो हवा में उड़ गए,
मेरा नाम तेरे होंठों से अब, जैसे दुआ बन गए।
अब जो मिल जाए तू अगर, तेरी हँसी की झिलमिल,
ज़िंदगी फिर से कहे- चलो वही चार दिन मिल गए,
प्यार के वो चार दिन,बस वही याद रह गए,
प्यार के वो चार दिन...


- शशि धर कुमार


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वे लोग

कहां गए वे लोग,
जो दूसरों को खिलाकर,
खाते थे
हर सुख दुख में ,
साथ निभाते थे।

कहां गए वे लोग,
जो अपनी खुली खत,
औरों से पढ़वाते थे।

हर चीज थी सबकी,
कोई अपनो से नहीं,
छुपाते थे।

कहां गए वे लोग,
जो चलते थे,
नेकी की राहों पर।

करते थे भरोसा,
गैरों की वफाओं पर।

कहां गए वे लोग,
जो अन कहे दर्द,
समझ पाते थे।

ज़ख्म रह गया ,
कोई दरम्यान,
वो खुद, भर जाते थे।

कहां गए वे लोग,
जो गुनाह करने पर,
भी समझते थे।

दर्द, दया, पाप और हया,
भी होती है कुछ,
ये अकसर बताते थे!


- रोशन कुमार झा


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जहर

रह रह कर दुश्मन देश के फन उठाने लगे हैं,
जहर जो जमा कर रखा था उसे फैलाने लगे हैं।

शांत सुखी रहना उन्हें हमारा भाता नहीं,
दहशतगर्दी के नित नए तरीके अपनाने लगे हैं।

उठो भरो हुंकार कुचलो इन गरल भरे फनों को,
जो काले मंसूबों से माँ भारती को डराने लगे हैं।

महक रही थी जो गलियां चैनों अमन से,
उन गलियों को फिर जहरीला बनाने लगे हैं।

एक रहना होगा सबको मिलजुल कर,
वतन के दुश्मन तो वतन को तोड़ने में लगे हैं।


- राज कुमार कौंडल


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ठंडी हवा का झोंका

सर्द मौसम का कहर जान लेकर जाएगा,
ठंडी हवा का झोंका दिल को छलनी कर जाएगा।
कोठे पर बर्फ की परत जम जाएगी,
सर्द रातें लंबी और अंधेरी होती जाएंगी।

पेड़-पौधे सूख जाएंगे, फूल म्लान होंगे,
सर्दी की मार से सब त्रस्त होंगे।
धूप की किरणें भी कमजोर पड़ जाएंगी,
सर्द मौसम की ठंडक हड्डियों में जम जाएगी।

रातें लंबी और दिन छोटे हो जाएंगे,
सर्द हवाएं दिल को ठंडा कर जाएंगी।
लौट आएगी सर्दी की वह रात,
जब ठंड से बचने का नहीं होगा कोई ठिकाना।

सर्द मौसम का कहर जान लेकर जाएगा,
ठंडी हवाएं दिल को छलनी कर जाएंगी।
सर्दी की मार से बचने का उपाय,
गर्म कपड़ों में छुपकर सर्दी को हराना।


- कैप्टन डॉ. जय महलवाल अनजान


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आखिरी पड़ाव

चढ़ने लगीं हूं उम्र की सीढियां
बताओ हाथ थामोगे क्या ?
जब हृदय में उमड़ने लगेंगी असंख्य
भावनाएं ,
कुछ अनकही दबी हुई संवेदनाएं ,
लड़खड़ाने लगेंगे कदम
और खाने लगेगा अकेलापन ,
उस मौन और एकांत में ,
जब सब साथ छोड़ देंगे
बताओ साथ निभाओगे क्या ?
तर्क विवाद से कोसों दूर ,
अंतर्मन के इस उन्माद को कोने में बांधकर
उम्र के आखिरी पड़ाव पर आकर ,
इस अनपढ़ हृदय को प्रेम का अर्थ
बताओ समझाओगे क्या ?
अंतरिक्ष जैसी प्रतिक्षा
और पृथ्वी जैसी सहनशीलता
अगर खंडित होने लगे
जीवन के मध्य में ही ,
सांसों का वेग रुकने से पहले
बताओ मुझको गले से लगाओगे क्या ?


- मंजू सागर


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मेहमान 

घर पर मेहमान जब है आता
व्यस्तता भरा मुहाल बन जाता।
कोई पानी लाता
तो कोई चाय बनाने में लग जाता।
बातचीत का सिलसिला शुरू होता 
सुख दुःख सांझा कर मन हल्का हो जाता।
मोबाइल फोन का जिक्र भी होता 
कौन सी कंपनी का मोबाइल किसके पास ये पता चल जाता।
गाड़ी की चर्चा भी होने से नहीं रूकती 
कौन सा माडल कौन सी कंपनी ये बातें खूब होती।
फिर खाना खाने का समय हो जाता 
अब आराम फरमाने की सोचता।
बस यूं ही समय बीतता जाता 
घर वाला अब बेचैन सा नजर आता।
कभी हमारा मेहमान नहीं था आता
अगर आ ही गया अब जाने का नाम नहीं लेता।
बस इसी कशमकश में घर वालों का दम घूटता जाता 
फिर भला कौन आज मेहमानबाजी को निभाता।


- विनोद वर्मा


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ओस की बूंद

एक नन्ही सी ओस की बूंद,
हाथ से सपर्श करती,
घास पर जा गिरी,
सूर्य कि किरण के साथ,
खेलती, नाचती सात रंग में रंगी,
छोटी से छोटी होती,
आंखो से ओझल हो गई,
ना जाने वो कहा लुप्त हो गई।


- सुनीता बिश्नोई

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