विचलित हूं में, विचलित हूं।
देख देख इंसानों की फितरत
सोच सोच में विचलित हूं।
इंसानों में इंसान ना पाकर
विचलित हूं में, विचलित हूं।
रोम में एक दार्शनिक हुआ करता था जिसका नाम सुकरात था। वह रोम की गलियों में दिन के उजाले में लालटेन लेकर हमेशा कुछ ना कुछ खोजता रहता था । जब उससे इसका जवाब पूछते थे कि तुम लालटेन लेकर दिन के उजाले में क्या ढूंढते हो तो उसका एक ही जवाब होता था , मैं इंसान खोज रहा हूं । हर युग में यह किस्सा प्रासंगिक होता जा रहा है। चाहे सतयुग हो , द्वापर , त्रेता या कलयुग हर युग में इंसान की खोज आज भी जारी है। आज के कलयुग में हमें हिंदू मिलेगा , मुसलमान मिलेगा सिख , ईसाई भी मिलेगा मगर इंसान नहीं मिलेगा । नेता मिलेगा , अभिनेता मिलेगा । अफसर मिलेगा मगर इंसान कहीं नहीं मिलेगा। इंसानियत नहीं मिलेगी । इंसान का आज दोहरा चरित्र हो गया है। आज इंसान ही इंसान का दुश्मन बन बैठा है । अपने फायदे के लिए आज का इंसान लाश के साथ भी सौदा करने को तैयार है । आज के इंसान को कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह भूखा है प्यासा है या फिर घुट घुट कर मर रहा है। उसको तो सिर्फ अपना फायदा नजर आता है। वह बेईमानी के पैसे से अपनी साथ पीढ़ियों के खाने का जुगाड़ करने में मस्त रहता है। वह अपने कर्मों का फल भुगत भी रहा है। मगर सुधर नहीं रहा।
यह जो महामारी आई है यह भी इंसानों के कर्मों का ही एक नतीजा है।प्रकृति का दोहन कर कर के आज के इंसानों ने प्रकृति को बंजर बना दिया है। बड़े बड़े उद्योगों के धुए से प्रकृति इतनी प्रदूषित हो गई है कि उसको अब दोबारा से शुद्ध होने के लिए यह महामारी इंसानों को सबक सिखाने के लिए आई है। इस महामारी में इंसान का दोहरा चरित्र सामने आ रहा है । कुछ मुट्ठी भर इंसान ही बचे हैं जिनकी वजह से आज थोड़ी बहुत इंसानियत बची हुई है । वरना इस महामारी में भी लोग एक दूसरे को ठगने से बाज नहीं आ रहे हैं। मौके का फायदा उठाकर हजारों लाखों लोग कालाबाजारी कर करके अपनी तिजोरिया भर रहे हैं। उनको बिल्कुल भी फर्क नहीं पड़ता की इस महामारी में जहां लोगों को दो वक्त का खाना नहीं मिल पा रहा , वह अपनी तिजोरीया भरने में लगे हुए हैं।
ऐसे इंसानों के लिए यह महामारी एक सुनहरा अवसर बन के आई है। जिसका पूरा पूरा फायदा कालाबाज़ारी करके उठा रहे हैं। वह शायद भूल रहे हैं इस महामारी की चपेट में वह खुद भी आ रहे हैं। मगर अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर उनका पूरा पूरा ध्यान अपनी तिजोरिया भरने में लगा हुआ है। हमारे सामने कई ऐसे किस्से आ रहे हैं। जो लोग लाशों का भी व्यापार करने से पीछे नहीं हो रहे । अगर उन्हें उचित पैसे नहीं दिए तो वह उस गरीब की लाश को भी उसे सौंपने से आनाकानी करने में लगे रहते हैं।
इस महामारी में जहां लोग पल भर में मर रहे हैं। वहीं कुछ लोग कालाबाजारी कर अपनी तिजोरिया भर रहे हैं । यह इंसानों के लिए एक अति है। एक सबक है। जो पृथ्वी इनको सिखा रही है । मगर आंख पर स्वार्थ की पट्टी बंधे होने के कारण यह सभी धृतराष्ट्र बन अपना व्यापार लाशो पर खड़ा कर रहे हैं। इससे शर्मनाक मानव प्रजाति के लिए क्या हो सकता है जो आज का मानव , मानव का ही दुश्मन बन बेटा है इंसानियत उनके सीने में मर चुकी है।
नेताओं से अपनी कुर्सी नहीं छूट रही। अपनी सत्ता बचाने के लिए यह लाखों लोगों की जिंदगियों से खेल रहे हैं। बात चाहे पश्चिम बंगाल की हो या मध्य प्रदेश के दमोह जिले की जहां पर चुनाव होने की वजह से लोक डाउन नहीं लगाया गया और लाखों लोगों की जिंदगीया कोरोना की भेंट चढ़ा दी गई।
अब चुनाव खत्म हो जाने पर यह लाठियां पीट रहे हैं जैसे सबसे ज्यादा चिंता इन्हें आम जनता की है। जब यह रैलियां कर रहे थे । तब इन्हें बिल्कुल भी ध्यान नहीं आया । उस समय तो उन्होंने कोरोना के आंकड़े छुपा लिए और कोरोना से मरने वाले लोगों के आंकड़े उजागर नहीं किये , अब चुनाव खत्म होने के बाद में यह ऐसा रोना रो रहे हैं जैसे सबसे ज्यादा चिंता इन्हें आम नागरिकों की है। धिक्कार है ऐसे नेताओं पर जो अपनी कुर्सी के खातिर अपनी सत्ता बचाने के लिए आम लोगों की जिंदगियों को कोरोना की भेंट चढ़ा रहे हैं।
मैं आज भी इस महामारी में इंसानियत खोज रहा हूं। वह इंसान खोज रहा हूं जिसमें इंसानियत अभी भी जिंदा है। वह इंसान खोज रहा हूं जिसको दूसरे का दर्द देख कर खुद के दर्द महसूस हो। एक शाश्वत सत्य है कि इंसान अपने कर्मों की सजा यही भुगत कर जाता है । ऊपर आसमान के पार कोई स्वर्ग नरक नहीं है । मगर सबसे बड़ी विडंबना यह है कि इंसान अपने कर्मों का फल भुगत भी रहा है। मगर सुधर नहीं रहा। आज भी जिन लोगों की तिजोरियां नोटों से भरी है । उन्हें रात में नींद नहीं आती । उन्हें भूख नहीं लगती। कई लोग तो ऐसे ही मर जाते हैं। और तिजोरिया भरी के भरी रह जाती है। ऐसी भरी तिजोरीया किस काम की , जिस का उपभोग वह इंसान नहीं कर पाए।
धन की तीन गतियां होती है दान , भोग , नाश अगर ऊपर वाले ने हमें धन दिया है तो उसका कुछ हिस्सा दान करना चाहिए और कुछ भोग विलास में खर्च करना चाहिए । अगर ऐसा नहीं किया तो अंत समय में उस धन का नाश होना निश्चित है ।
कबीर दास जी ने अपने दोहे में इसका बहुत सुंदर उदाहरण पेश किया है
" साईं इतना दीजिए , जामे कुटुम समाय , मैं भी भूखा ना रहूं , साधु न भूखा जाए " सारी जिंदगी धन कमाने के फेर में हम अपनी असली जिंदगी का मकसद ही भूल जाते हैं। 8400000 योनियों के बाद में मानव योनि प्राप्त होती है । मगर आज का इंसान इस योनि को नासमझी , तेरा मेरा करते करते गुजार देता है।
कमल राठौर साहिल
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