उठो प्रतीक्षा करती तेरी कह है
जीवन जीना तेरी सुंदर चाह है
भय संकट से कब तुम हो घबराते
आंधी तुफानों की क्या प्रवाह है
मानव अपनी शक्ति को पहचान ले
चाँद पे पहुँच गया है मानव मान ले
वह क्या जो तेरी शक्ति से है बाहर
अंतर मन की वृत्तियों जो जान ले
हर अँधियारा कहता जदमाग होने को
दुर्जन का अंतर्मन कहता रोने को
उठ रे मानव ज्योतित कर जग-जान-मन
मनुजता के बीज पड़े हैं बोने को
डा. केवलकृष्ण पाठक
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