साहित्य चक्र

22 November 2025

आज की प्रमुख कविताएँ- 23 नवंबर 2025







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लौट कर नहीं आयेगा बचपन

हर ग़म से दूर होता है मासूम बचपन,
न किसी से वैर न ईर्ष्या न ही द्वेष करता,
हर किसी से प्रेम निभाता बचपन।

कागज की कश्ती कागज के जहाज,
हैं तो असल में मन बहलाने की तरकीबें,
उस पल में जान से प्यारा माने इन्हें बचपन।

निश्छल प्रेम की पराकाष्ठा होता है बचपन,
एक पल में लड़ता झगड़ता है गर किसी से,
अगले ही पल प्रेम के झूले में झूलता बचपन।

दिल पर कोई बोझ नहीं लेता बचपन,
सबकी बातों का लेता है हरपल आनंद,
हर तकरार को पानी की लकीर मानता बचपन।

नाचना खेलना कूदना मस्ती का नाम था बचपन,
जहां सभी राजा थे उसके सिवाय कुछ न थे,
बड़ा छोटा कोई न था सबमें सिर्फ था अपनापन।

अब उम्र चाहे हो किसी की पचास या पचपन,
उसकी सिर्फ यादें ही आएंगी जेहन में,
फिर कभी लौट कर नहीं आयेगा वो बचपन।


- राज कुमार कौंडल


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टाइम निकाल कर हंसा कीजिए
मौज के सोम रस का नशा कीजिए
नफरती सीमा रेखा को तोड़ कर
मुहब्बत के शहर में बसा कीजिए
फकत आंखों मत रहिए जनाब
सीप जैसे दिलो में बसा कीजिए
पढ़ लिख कर कुछ बनना है तो
कट्टा और दुपट्टा से बचा कीजिए
शहरी लोग मुसलसन अजनबी हो रहे हैं
पर आप कही रहे गांव भी से वफ़ा कीजिए
मेकअप से सुंदर मत बनिए
अच्छे चरित्र से जांचा कीजिए
जब तक बरसात का मौसम है
संग में गुल उगा कर मोजिजा लीजिए
फकत चार दिन की जिंदगानी है
सभी जीव जंतुओं पर दया कीजिए
फलक का मेहरो मह बनिए
सच्चे मन से रब का फलसफा कीजिए
घर गृहस्थी खुशहाल बना रहेगा
मां बाप को सेवा से शदा कीजिए
मां बाप ही हमारे लिए चारों धाम है
उनको ही दिल में खुदा कीजिए
समय बहुत तेजी से बदल रहा है
ग़मो को सिगरेट की तरह धुआं कीजिए
दूसरों के चालन में छेद मत देखिए
“सदानंद”अपने गलतियों पे पशेमा कीजिए


- सदानंद गाजीपुरी


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कोसता क्यों है दूसरों को ?
अपने भी दोष देख प्यारे
कैसे कर्म करते हो?
एक नज़र उन पर भी डाल प्यारे
कोसता क्यों है दूसरों को ?
अपने भी दोष देख प्यारे...
सामने तो मीठा बोलते हो
दिल में रखा है खंजर प्यारे
सोच समझ कर रख कदम
ऊपर वाला भी देख रहा है प्यारे
कोसता क्यों है दूसरों को ?
अपने भी दोष देख प्यारे...
एक एक पल का हिसाब रखता है
ऊपर वाला परवरदिगार,
ये ख़्याल भी जहन में रख प्यारे
उसकी लाठी में आवाज़ नहीं होती
अंजाम उसका आंखों से देख प्यारे,
कोसता क्यों है दूसरों को ?
अपने भी दोष देख प्यारे...
दूसरों में दोष देखना बिल्कुल आसान है
मगर अपने अन्दर झांकना बड़ा मुश्किल है
कभी दिल में झांक कर तो देख
तेरे कर्मों का हिसाब कैसा है प्यारे?
कर उपकार, छोड़ नफ़रत,
दिखावे में क्या रखा है प्यारे
कोसता क्यों है दूसरों को ?
अपने भी दोष देख प्यारे...


- बाबू राम धीमान


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आईना

आपका रूप, आपकी शक्ल
हुबहू बताता है आईना
कैसा है चेहरा, कैसी है सूरत
बताता है आईना
कैसे हैं हाव- भाव, कैसा है मिजाज
बताता है आईना
पर आईने की भी हद है
हाव- भावों को, मिजाजों को
पढ़ नहीं पाता है आईना
आईने के सामने जो लगते हैं सच्चे
उन झूठों को पढ़ नहीं पाता है आईना
आईने के सामने जो लगते हैं हमें अपने मित्र
उन शत्रुओं को पहचान नहीं पाता है आईना
आईने के सामने जो लगते हैं अपने
उन बेगानों को पहचान नहीं पाता है आईना
हे मानव ! अपनी बुद्धि से ले काम
अक्सर धोखा दे जाता है आईना
जो खुद को बुद्धि से बताओगे
आखिर वही बताता है आईना


- प्रवीण कुमार


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रिश्ते

रिश्तों को निभाना सीखो 
गलतफहमी के धागे मत खींचो।
जहां जहां गलतफहमियां है बढ़ी
वहां वहां रिश्तों में दीवार हुई है खड़ी।
रिश्ते बनना भी है एक संयोग 
गर रहोगे कोसते तो भोगना पड़ेगा वियोग।
रिश्ते बनते यहीं निभाने भी पड़ते यहीं
कहीं फलते फूलते तो बर्बादी नजर आती कहीं।
कोई रिश्ता जन्मों जन्मान्तरों तक बनाता 
तो कोई एक जन्म भी नहीं निभाता।
रिश्तों में आपसी समझ चाहिए जरूरी
निभाने में न समझे मजबूरी।
कहीं  रिश्ते तार तार भी होते
तो कहीं कत्ल की सजा तक है भोगते।
मतलब के जो रिश्ते हैं बनते 
ज्यादा देर नहीं है वो टिकते।
जब से मनुष्य तरक्की की राह पर है चला
उसके मन में रंजिश का दानव है पला।
यही दानव उसे उकसाता,विवश करता
फिर क्या वही होता जो रिश्ता नहीं चाहता।


- विनोद वर्मा


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बस यूँ ही

क्यों हमें आप यूँ सताते हैं
हम तो हर ग़म में मुस्कुराते हैं।

आप ये तो बताइए हमको
भूल जाते हैं या भुलाते हैं।

कर तो लेते हैं वादे वो लेकिन
सारे वादे कहाँ निभाते हैं।

हमने उनको तो टूट कर चाहा
अपनी चाहत मगर छुपाते हैं।

वो जो बसते हैं मेरी आँखों में
दूसरा क्यों जहाँ बसाते हैं।


- सविता सिंह मीरा


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ठगी गई नारी

पुरुषों की इस दुनिया ने यह कैसी नीति दिखलाई ?
जी भर कर मुस्कुराना भी दुश्वार हुआ नारी का,
कभी अग्नि परीक्षा तो कभी एसिड से गई जलाई,

किसने आजादी दी तुम्हें एक औरत का तिरस्कार करने के लिए ?
उस हिसाब से तो देखा जाए, तो नीला ड्रम कुछ भी नहीं है पुरुषों के लिए,
कभी घुंघट तो कभी परदे की बेड़ियाँ डाली नारी के पैरों में,
कभी सीता तो कभी सती, प्रत्येक युग में ठगी गई बंधन की जंजीरों में,

कभी हवस का शिकार बनी,
तो कभी स्वयं को जौहर की अग्नि में धकेल दिया,
चंद पैसों के खातिर मां बाप ने भी कभी एक बूढ़े संग में ब्याह दिया,
पढ़ा लिखा कर क्यों अपनी बेटियों को एक ऐसे जानवर के साथ बांध देते हो?
क्या सच में बेटियों का वजन उठाना इतना भारी है ?
जो एक गँवार को माथे में मढ़ देते हो,

पुरुष समाज को भी आज "माही" की बात सुननी पड़ेगी -
मत करो , तिरस्कार नारी का जिसने तुम्हारा साथ स्वीकारा है,
बहुत सारी कल्पनाएं हैं तुमसे ही तो हैं उसकी,
क्योंकि उसने तुम्हें हजार कमियों के बाद भी अपनाया है,

हे पुरुष! न जाने कब बदलेगी तुम्हारे मन के भावों की यह मुद्राएं,
न जाने कब समझोगे नारी दासी नहीं स्वामिनी है तुम्हारे जीवन की,
शून्य से शिखर तक तुमसे ही जुड़ी है उसकी भावनाएं।


- रचना चंदेल 'माही'


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एक गीत

क्यो फिक्र हो क्यो जिक्र हो,
कोई जो कुछ कह गया।
एक दिल मेरे सिवा,
पत्थर का था सब सह गया।

सौ सौ ऩकाब चढ गए,
चेहरे पे कुछ इस तरह।
कि पर्दानशी भी आज
बे पर्दा होके रह गया।

इन रस्मो रिवाजो मे,
क्या आदमी है कोई।
इन्सानियत का घर यहॉ
जाने कब का ढह गया।

अम्मी जान घबडा रही,
अम्मी के उस नाम से,
पैसो की गुडिया से ब्याही,
बेटा घर जमाई बन गया।

वादो संवादो से घायल,
आशिक हुआ इस तरह
कि आशिकी का नाम भी,
अभिनय होके रह गया।

नज्म व ग़जल भी,
रत्न लिखे किस तरह,
श्रृंगार के सिवा,
न गीत कोई रह गया।


- रत्ना बापुली


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“स्त्री का मन”

चलो, आज एक स्त्री के मन को पढ़ा जाए-
वैसे नहीं, जैसे लोग पढ़ते हैं
उसके कपड़े, चाल, चेहरे, चुप्पी
और फिर अपने हिसाब से
उसके अर्थ गढ़ लेते हैं।
नहीं- आज सचमुच पढ़ा जाए।

सबसे पहले उसकी आँखों को खोलो-
वहाँ रोशनी कम,
यादों की हल्की धुंध ज़्यादा है।
वहाँ कुछ सपने हैं-
जो टूटकर भी चमकते हैं,
और कुछ डर हैं-
जो जीते जी मरते रहते हैं।

उसकी मुस्कान को पढ़ो-
यह मुस्कान उसकी नहीं,
कई बार मजबूरियों की सिलाई से बनी होती है।
पर फिर भी वह पहनती है-
क्योंकि उसे सिखाया गया है कि
स्त्री की हँसी ही उसका सबसे बड़ा आभूषण है।

उसके कंधों को पढ़ो-
इन पर केवल ओढ़नी नहीं,
पूरे परिवार का वज़न टंगा होता है।
यह कंधे थकते नहीं-
क्योंकि उन्हें कभी थकने की इजाज़त ही नहीं मिली।

उसकी हथेलियों को पढ़ो-
इनमें मेहंदी भी है,
और जलती रसोई की तपिश भी।
इनमें प्यार का स्पर्श भी है,
और दिन रात की मेहनत की लकीरें भी।

उसकी चुप्पी को पढ़ो-
यह सिर्फ़ चुप्पी नहीं,
एक पूरा ब्रह्मांड है
जहाँ वह छुपाकर रखती है
अपनी हज़ारों अनकही दास्तानें।

उसके पाँव को पढ़ो-
ये पाँव बहुत सीढ़ियाँ चढ़े हैं-
नारी होने की,
समझौते की,
सहनशीलता की,
और फिर भी हर सुबह
नए क़दमों से नया दिन शुरू कर देते हैं।

और अंत में-
उसके दिल को पढ़ो।
यह वही दिल है
जो अपने लिए आधा कौर रखकर
बाकी सबको पूरा परोस देता है।
वही दिल
जो टूटकर भी आवाज़ नहीं करता,
जिसके अंदर एक छोटी-सी लड़की
अभी भी खिलौने तलाशती है,
लेकिन दुनिया उसे
हर रोज़ औरत बनने पर मजबूर करती है।

चलो, आज एक स्त्री के मन को पढ़ा जाए-
क्योंकि वह मन कोई रहस्य नहीं,
एक जीवित कविता है-
जिसके हर पन्ने पर लिखा है:
“मुझे समझने से पहले
मुझे सुना, महसूस किया,
और प्रेम से पढ़ा जाए।”


- आरती कुशवाहा


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बेटी

बेटी अगर ठान लेती है,
अपनी ताकत पहचान लेती है।
कामयाबी खुद चलकर आती है,
तकदीर भी खड़ी खड़ी मुसकाती है।
समन्दर में रास्ते हो जाते हैं,
मोती ख़ुद निकलकर बाहर आते हैं।
हताशा के बादल छंटने लगते हैं,
नाकामयाबी के कोहरे हटने लगते हैं।
नया इतिहास बनने लगता है,
धरा का भूगोल बदलने लगता है।
उम्मीदों के सूरज जब निकलकर आते हैं,
अंधेरी राहों में भी उजाले हो जाते हैं।
जब बेटी आगे बढ़ने लगती है,
अंतरिक्ष की भी दूरी सिमटने लगती है।
सियासत तक अपने रास्ते खोल देती है,
बेटी की जीवटता को मोल देती है।
जब बेटी को अवसर मिलते हैं,
देश में तरक्की के सुमन खिलते हैं।
कोई सुनीता बन आसमान जीत लेती है,
कोई इंदिरा बन देश की
तरक्की को नए आयाम देती है।
बेटी अगर ठान लेती है,
अपनी ताकत पहचान लेती है।
कामयाबी खुद चलकर आती है,
तकदीर भी खड़ी खड़ी मुसकाती है।


- भुवनेश मालव


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"ढूंढ़"

सब ढूंढ़ रहे है
मानो कुछ खो गया है
"ढूंढ़" राजस्थान का रिवाज है
बच्चे के जन्म पर
होली के दिनों में
फाल्गुन की ग्यारस
कों ढूंढ़ मनाते है
आज तो "ढूंढ़"
ढूंढोत्सव
में बदल गया है
सब ढूंढ़ रहे है
बच्चे अध्यापक ढूंढ़ रहे है
अध्यापक मतदाता ढूंढ़ रहे है
मतदाता 2002 की वोटर लिस्ट ढूंढ़ रहे है
तारीख नजदीक आ रही है
ढूंढ़ बढ़ती जा रही है
देश ढूंढ़ने में लगा है
डाक्टर मरीज़ ढूंढ़ रहे है
बाज़ार ग्राहक ढूंढ़ रहा है
शिक्षण संस्थान एडमिशन ढूंढ़ रहे है
खाली कक्षाएं विद्यार्थी ढूंढ़ रही है
कर्मचारी वेतन, ग्रेच्युटी,बोनस ढूंढ़ रहे है
पेंशनर्स जीवित प्रमाण पत्र ढूंढ़ रहे है
छात्र परीक्षा में नंबर ढूंढ़ रहे है
कुछ अति उत्साही छात्र
परीक्षा से पहले पेपर ढूंढ़ रहे है
कुछेक परीक्षा केंद्र ढूंढ़ रहे है
बेरोजगार रोजगार ढूंढ़ रहे है
पेसेंजर प्लेटफार्म पर गाड़ी ढूंढ़ रहे है
वकील क्लाइंट ढूंढ़ रहे है
जज न्याय ढूंढ़ रहे है
फरियादी दफ्तर में बाबू ढूंढ़ रहे है
मां बाप बच्चों का
योग्य रिश्ता ढूंढ़ रहे है
बच्चे आनलाईन रील ढूंढ़ रहे है
मीडिया खबर ढूंढ़ रहा है
एच आर विज्ञापन ढूंढ़ रहे है
पाठक विज्ञापनों में ख़बर ढूंढ़ रहे है
नेताजी कुर्सी ढूंढ़ रहे है
लच्छेदार भाषण ढूंढ़ रहे है
आयोजक भीड़ ढूंढ़ रहे है
भीड़ भाषण में सच्चाई ढूंढ़ रही है
ज्वैलर्स बाजार की सीजन ढूंढ़ रहे है
ग्राहक आभूषण में सोना ढूंढ़ रहे है
हर कोई कुछ न कुछ
जरूर ढूंढ़ रहा है
कोई नई बनी पंचायतें ढूंढ़ रहा है
कुछ उभरते नेता
धरातल ढूंढ़ रहे है
सच में सब ढूंढ़ रहे है
लिखारे नये कंटेंट ढूंढ़ रहे है
सब ढूंढ़ रहे है
ढूंढोत्सव मना रहे है...


- जितेन्द्र कुमार बोयल



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