साँस बुझे लपटे झपटे
आदम के सन्नाटे जैसा
पाताल बना हो अंतर्मन
साथी संगी दिन रात घटे...तब
तुम्हीं कहो फिर जीवन क्या है!
चंदा जैसे सूरज चमके
वनतुलसी की भन्नाहट से
वन-राग बना हो अंतर्मन
जीवट बनकर आँखें भभके..तब
तुम्हीं कहो फिर जीवन क्या है!
आकाश कहीं है पहचानो
विश्वास नहीं है तुम जानो
उत्कट होंठों के कंपन में
उच्छ्वास कहीं है तुम मानो
कटहल की खालों के जैसी तुम
कटु हो और सुकोमल भी
इक ग्राम-सरोवर के जैसी तुम
तपित कहीं हो शीतल भी
तब तुम्हीं कहो फिर जीवन क्या है!
ऋषभ पाण्डेय
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