आशंकाओं के काले घन छाये है चारों और मेरे
आँखों के सन्मुख अंधकार आ रहा नजर घनघोर मेरे
क्या होगा भावी कल में मैं यह सोच सोचकर चिंतित हूँ
कैसे जी पाऊँगा जीवन यह सोच सोचकर विचलित हूँ
रह रहकर लहरें उठती है मन के उदधि में रोज रोज
अनगिनत सवाल खड़े होते है मेरे सन्मुख रोज रोज
इक प्रश्न खड़ा कर्तव्यों का कैसे निर्वहण करूँगा मैं
अग्नि से डरकर के स्वयं को कैसे परिदहन करूँगा मैं
इक प्रश्न वैवाहिक जीवन का कैसे सफलित करूँगा मैं
इक प्रश्न सुनहरे सपनों का कैसे परिपूर्ण करूँगा मैं
चिंता है मुझको मैं घर की सरकार चला पाऊँगा क्या
भावी इस नई कहानी में किरदार निभा पाऊँगा क्या
महेश डांगरा
धन्यवाद
ReplyDelete