साहित्य चक्र

14 May 2021

सूबेदार तानाजी मालुसरे जी कौन थे..?



तानाजी मालुसरे जी एक वीर मराठा सरदार थे। जिनका जन्म सन् 1600 के आस-पास गोदोली गाँव, महाराष्ट्र में माना जाता है। उनकी माता जी का नाम- पार्वती बाई व पिता का नाम सरदार कलोजी था। तानाजी छत्रपति शिवाजी महाराज के बचपन के घनिष्ठ मित्र थे। छत्रपति शिवाजी महाराज के साथ मराठा साम्राज्य व हिंदवी स्वराज्य की स्थापना के लिए किल्लेदार तानाजी अहम भूमिका निभाया करते थे। महान तानाजी मालुसरे जी को सिंहगढ़ की लड़ाई में प्रचंड पराक्रम और अतुल्य साहस के लिए आज भी याद किया जाता है। तानाजी को छत्रपति शिवाजी का दायां हाथ माना जाता था। तानाजी बचपन से ही तलवारबाजी और युद्ध विद्या में अव्वल थे। जिसके बाद तानाजी मराठा सेना के किल्लेदार यानी सूबेदार बनें। पिछले साल तानाजी के ऊपर बनी फिल्म आने के बाद हर कोई तानाजी के बारे में विस्तार से जानना चाहता है।





यह वह काल था जब मराठा साम्राज्य और मुगल शासन विस्तार से फैल रहा था। तभी मराठा साम्राज्य की बढ़ती शक्ति को देख चिंतित होकर मुगल शासन औरंगजेब ने दक्षिण में नियुक्त अपने सूबेदार को उन पर चढ़ाई करने का आदेश दे दिया। मराठा साम्राज्य के पास बड़ी संख्या में किले व सेना थी। जिसकी मरम्मत व देखभाल में काफी धन खर्च किया जाता था। धीरे-धीरे मुगलों ने करीब 23 किले अपने अधीन कर लिए। जब पुरंदर का किला बचा पाने में शिवा जी महाराज असमर्थ हुए तो उन्होंने जयसिंह से 22 जून 1665 में पुरंदर की संधि की। जिस संधि में शिवाजी महाराज को कोंढ़ाणा किला मुगलों को देना पड़ा था। जिससे मराठा साम्राज्य के लिए खतरा बढ़ गया। इसके बाद शिवाजी इस किले को दोबारा से मराठा साम्राज्य की सुरक्षा व समृद्धि के लिए वापस पाना चाहते थे। 1665 की संधि बाद शिवाजी औरंगजेब से मिलने आगरा गए थे, मगर मुगल शासन ने उनके साथ धोखा कर उन्हें बंदी बना लिया था। शिवाजी आगरा से जैसे-तैसे निकलकर महाराष्ट्र पहुंचे और उन्होंने उसके बाद पुंरदर संधि को तुरंत अस्वीकार कर दिया। जिसके बाद से मुगल और मराठा के बीच संघर्ष शुरू हुआ। अब मराठा साम्राज्य मुगलों के अधीन अपने सभी किलों को फतह करना चाहता था। शिवाजी के साथ आगरा में मुगल शासन द्वारा जो अपमान किया गया था। वह अब मराठाओं की सम्मान में बात बन गई थी। मराठाओं ने अपने लक्ष्य की शुरुआत कोंढ़ाणा किला से की क्योंकि यह किला सबसे महत्वपूर्ण था। कोंढ़ाणा किला जिसके पास होता उसका पूना पर पूर्ण अधिकार होता था।



कोंढ़ाणा का किला 70,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैला विशाल किला था। इस किले का एक द्वार पुणे की ओर दूसरा कल्याण की ओर खुलता था। शिवाजी ने अपने इस लक्ष्य को सिद्ध करने के लिए तानाजी के नेतृत्व में कोंढ़ाणा किला अर्जित करने का निश्चय किया। जिसके बाद मराठा शासन ने तानाजी के नेतृत्व में कोंढ़ाणा पर हमला बोल दिया। कोंढ़ाणा किले में मुगलों ने सुरक्षा के लिए 5000 हजार से अधिक सैनिक तैनात किए थे। तानाजी ने अपने युद्ध कौशल की योजना से किले के पीछे की खतरनाक पहाड़ियों से चढ़कर किले पर हमला बोला तो वहीं कल्याण द्वार का मोरचा तानाजी ने अपने छोटे भाई सूर्याजी मालुसरे को दी। मगर वहाँ युद्ध करना बहुत ही खतरनाक था, क्योंकि मराठाओं की सेना मुगलों की तुलना में बहुत ही कम थी। इसके बावजूद भी मराठा सैनिक बिल्कुल भी पीछे नहीं हटे। जिस ओर से तानाजी ने किले पर हमला बोला उस ओर से मुगल कभी भी सोच तक नहीं सकते थे कि दुश्मन यहां से भी हमला बोल सकता है। खड़ी पहाड़ियों पर चढ़कर हमला करना कोई तानाजी से सीखें... जो दुश्मन सोच भी नहीं सकता वो तानाजी से सीखे… जो दुश्मन को उसके घर में घुसकर मारे वो ताना जी से सीखें…। जब किले के सेनापति उदयभान राठौड़ को इस हमले के बारे में पता चला तो उसने तानाजी पर हमला करना शुरू कर दिया। इस हमले में तानाजी की ढाल टूट गई। जिसके कारण तानाजी उदयभान के द्वारा मारे गए और वीरगति को प्राप्त हुए। मुगल इस किले को मराठाओं के हमले से नहीं बचा पाए और मराठाओं ने अपना किला दोबारा जीत अपना ध्वज लहराया। इस युद्ध में मराठाओं ने मुगलों को उनकी औकात दिखाई और एक-एक उन्हें किले से खदेड़कर भगाया। जब मराठाओं ने कोंढ़ाणा का किला जीता तो मराठा शासक शिवाजी महाराज कोंढ़ाणा किले पहुंचे और देखा कि किले पर तो मराठा शासन का ध्वज लहरा रहा है, मगर अपने सबसे प्रिय सेनापति तानाजी को उन्होंने खो दिया है। अपने सबसे प्रिय सेनापति तानाजी की वीरगति को देख शिवाजी बोलो- ‘गढ़ आला, पन सिंह गेला’ यानि किला तो जीत लिया लेकिन अपना शेर खो दिया।



मराठा साम्राज्य की बात जब-जब होगी तब-तब सेनापति तानाजी को जरूर याद किया जाएगा। शिवाजी महाराज का वह शेर था। जिसने अपना हर वचन निभाया और मराठाओं का मान बढ़ाया। कई विद्वान व इतिहासकार कहते है- तानाजी ने खड़ी पहाड़ पर चढ़ने के लिए घोरपड़ छिपकली या घोरपड़ जनजाति के लोगों का मदद ली थी। हाँ यह कथन पूर्ण रूप से सत्यापित नहीं है। जब तानाजी की ढाल टूट गई, तब उन्होंने अपने सिर की पगड़ी खोलकर अपने दूसरे हाथ में लपेट लिया ताकि उसे ढाल की तरह इस्तेमाल किया जा सके। कहा जाता है- जब शिवाजी कोंढ़ाणा पर चढ़ाई करने वाले थे। तब तानाजी के पुत्र रायबा के विवाह की तैयारियां चल रही थी। इसी कारण शिवाजी तानाजी को इस बारे में बताना नहीं चाह रहे थे, मगर तानाजी को इस युद्ध के बारे में अन्य लोगों से पता चला। तब तानाजी ने साहस दिखाते हुए इस युद्ध को खुद लड़ने की पेशकश की। अपने पुत्र के विवाह को प्राथमिकता ना देते हुए एक सेनापति का कर्तव्य को चुना। जो तानाजी का शिवाजी महाराज के प्रति गहन प्रेम व मित्रता तथा राज्य के प्रति विशेष लगाव दिखाता है। तानाजी ने कोंढ़ाना किला मात्र 340-350 मराठा सैनिकों के दम पर जीता, जो बहुत ही कठिन कार्य है।


जिस क्षेत्र से तानाजी ने हमला किया उस दिशा के बारे में मुगल सोच भी नहीं सकते थे कि यहां से हमला होगा। इसे कहते है- युद्ध करने की सबसे बड़ी योजना जिसका दुश्मन कभी अंदाजा तक ना लगा सके। उदयभान राठौड़ मुगलों का हिंदू सेनापति था। जिसे कोंढ़ाना पर जनरल जय सिंह प्रथम द्वारा नियुक्त किया गया था। मुगलों की सेना लगभग 5000 से अधिक थी, उसके बावजूद भी मराठाओं ने मुगलों को उनकी औकात दिखा दी। कोंढ़ाणा युद्ध में तानाजी और उदयभान के बीच घोर संग्राम हुआ था। तानाजी की मौत के बाद शिवाजी महाराज शोकमग्र हो गए। 



कोंढाणा यानि सिंह गढ़ एक प्राचीन पहाड़ी किला है। यह महाराष्ट्र के पुणे शहर से 30 किलोमीटर की दूर पर स्थित है। माना जाता है कि यह किला करीब 2000 वर्ष पूर्व निर्मित किया गया था। 1328 ई.वी. में दिल्ली राज्य के सम्राट मुहम्मद बिन तुगलक ने यह किला कोली आदिवासी सरदार नाग नायक से छीन लिया था। शिवाजी के पिता संभाजी भोसले इब्राहीम आदिल शाह प्रथम के सेनापति थे। इसलिए उनके हाथ में पुणे का नियंत्रण था। इस दौरान संभाजी भोसले ने सूबेदार सिद्दी अम्बर को हराकर यह किला जीत लिया। सन् 1647 में शिवाजी ने इस किले का नाम सिंह गढ़ रख दिया। सन् 1649 में शाहजी महाराज को आदिल शाह की कैद से आजाद कराने के लिए यह किला छोड़ना पड़ा। 1670 में शाहजी व शिवाजी महाराज ने मिलकर सिंह गढ़ को फिर से जीत लिया। संभाजी महाराज की मृत्यु के बाद मुगलों ने एक बार फिर इस किले को फ़तेह किया था। 1693 में मराठों ने सरदार बलकवडे के कुशल नेतृत्व में सिंहगढ़ फिर से जीत लिया। इसके बाद सन् 1703 में औरंगजेब ने यह किला जीता और तीन वर्ष के बाद संगोला, पंताजी शिवदेव और विसाजी चापरा के कुशल नेतृत्व में मराठों ने यह किला फिर से जीत लिया था।


1818 में यह किला मराठा साम्राज्य के अधीन था और इसके बाद इस किले को अंग्रेजों ने जीता। इस किले को जीतने के लिए अंग्रेजों को करीब 3 माह तक संघर्ष करना पड़ा था। इस किले में प्रचंड पराक्रम व अतुल्य साहस के लिए तानाजी मालसुरे की मूर्ति स्थापित है। आज इस गढ़ को लोकप्रिय पर्यटन स्थल बना दिया गया है। इस किले को लेकर कई लेखकों ने पुस्तकें और फिल्म बन है। जिसमें तुलसीदास जी की पोवाडा, सावरकर की बाजी प्रभु और इस किलो के इतिहास को लेकर तानाजी (Tanaji – The Unsung Warrior) नाम की फिल्म भी बनी है। तानाजी एक महान, वीर, पराक्रमी और साहसी योद्धा थे। तानाजी के लिए मित्रता, राष्ट्रभक्ति सबसे ऊपर रहती थी। तानाजी मालुसरे जी को शत्-शत् नमन...।



दीपक कोहली 'पागल'



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