एक कविता मेरे अंतर्मन में
आते आते बिछड़ गयी.
किसी अनजान भय से
हृदय तक तड़प गयी
एक कविता मेरे जहन में
पनप रही थी
वर्ण से शब्द तक
काव्य के प्रारब्ध तक
साधना में तप रही थी
कमवक्त ये बैरी तूफ़ान
जाने कहाँ से बीच में आ गया,
और बड़ी बेरहमी से मेरी कविताओं
के शब्दों में लगे पंखो के
चिथड़े चिथड़े कर खा गया,
बहा ले गया अपने हवाओं के झोकों
के साथ
मन छटपटा उठा, मेरा क्या फिर से
मेरे जहन में कविताओं के
जारोखे उठेंगे या नहीं
भाव काव्य सौंदर्य के सजेगें कि नहीं
या उठने से पहले ही ये बैरी
तूफ़ान आज की तरह
कत्ल कर देगा भावनाओं का
क्या फिर देगा आशाओं को विरह
फिर से बुझा देगा मेरे जहन
में जगमगाते कविताओं के दीप ,
क्या फिर से जख्म देगा शब्दों को
छीन लेगा उससे मोतीयों वाला सीप
मै फिर से एक उम्मीद में रहूं,
या वजूद मिटा दूँ अपने अंदर से.
या चुरा लूँ कुछ भाव हृदय के समंदर से
आज कल कविताओं का अंत तक जाना
मुश्किल हो रहा है.
अमृत की खोज युग बीते लेकिन आज सब
गरल हो रहा है
ऐसा प्रतीत होता है की
अंदर क़ोई बैठा है मेरे.जो चाहता है
मेरी कविताओं का अंत करना,
मैं उसमें समाहित हो जाऊँ जैसे फूल में खुशबू
पानी में नमी चाहता है बसंत बनना
शब्दों को मुझे कविताओं में. पिरोने नहीं देता
हर रोज मेरी कविताओं अंत होता जा रहा है,
आरती शर्मा
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