जी हुजूर मैं शब्दों को पिरोकर
कुछ पंक्तियाँ लिखता हूँ ।
उनके बारे में लिखता हूँ,
जो धर्म को अपना हथियार बनाकर,
समाज की नुमाइश करते हैं।।
मैं उनके कारनामों को लिखता हूँ,
जो भेदभाव के नाम पर समाज में ईष्या फैलाते।
उनकी असलियत बताता हूँ,
जो चोरी करके रपट लिखवाते हैं।।
मैं भ्रष्टाचारियों के खेल का पर्दाफाश करता हूँ ,
जो जनता के हिस्से का खाकर डकार तक नहीं लेते।
उन चुगलखोरों की आँखें खोलता हूँ ,
जो चुगली करके दूध के धुले बन जाते ।
जी जरूर मैं शब्दों को चुनकर ,
कुछ अल्फ़ाज़ लिखता हूँ ।
सफेद कुर्ताधारी में छिपे,
काले कुर्ते के कारनामे लिखता हूँ।
उन फिजूल बातूनी बाजीगरों की,
पोल खोलता हूँ।
जो जनता को अपनी रसीली बातों में बहकाता है ।
समाज में फैली कुरीतियों का जनाजा निकालता हूँ,
अन्धविश्वास को मिटाने की कोशिश करता हूँ।
जी हुजूर मैं शब्दों को पिरोकर ,
कुछ पंक्तियाँ लिखता हूँ
अपनी व्यथा आप तक,
और आपकी समाज तक पहुँचाता हूँ।
जी जरूर मैं कुछ अल्फाजो ंको पिरोता हूँ।।
कैलाश उप्रेती "कोमल"
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