साहित्य चक्र

26 June 2021

।। संधिपत्र ।।




सुनो पुरोहित सुनो सामंत सुनो महाजन
तुम इसे संधिपत्र समझना
हाँ मैं युद्ध नहीं चाहता
यह संधिपत्र है
मैं तुम्हारी पालकी के बोझ से छिल चुके अपने कांधों पर
नहीं उठाना चाहता कोई हथियार
ज़रूरी नही कि हर संधि प्रस्ताव हार की
आशंकित जमीन पर रेंगता हुआ मिले
कभी कभी वह रेगिस्तान पर बर्फ की तरह भी गिरता है
संधिपत्र पर्याय है प्रेमपत्र का
किसी भी भाषा की सर्वश्रेष्ठ कृति है संधिपत्र
काश कि तुम्हारे सबसे पवित्र धर्मग्रंथ में होता एक पन्ने का भी कोई संधिपत्र
तो नहीं होता महाभारत या उसके बाद कोई युद्ध
युद्ध के दार्शनिक देवता सन्धि पत्र को कमजोरी बताएँगे
इसलिये मैं कहता हूँ कि तुम मेरे कांधों को कमजोर ना समझना
मैं समूची पृथ्वी को बैठाकर पालकी में
युद्धभूमि से दूर
समय के पार ले जाना चाहता हूँ उससे बेहतर जगह
जिसे तुम स्वर्ग कहते हो या सतयुग कहते हो
मेरी उस जगह का नाम है साम्य.....
सम्यक साम्य
इसलिये अब उतरो पालकी से
पृथ्वी भारी होती है
तुम्हारा काँधा भी चाहिए पालकी के पीछे
मैं रहूँगा आगे .....
क्योकि मैं तुमसे बेहतर जानता हूँ साम्य का रास्ता...

मोहन आर्य


।। प्रेम ।।





प्रेम रंग में रंग गई ,चुनरिया मेरी लाल
 मन गुलाब सा खिले,देख पिया का  प्यार...

पिया  केसर के पानी से, मैं उसमें घुली ग़ुलाल...
पिया रंगें रंग केसरी,  पर भये  कपोल सुर्ख़ गुलाब....

प्रीत रंग कुछ यूँ चढ़े, हिय होश दियो गँवाय...
चहूँ और पिया तुम दिख रहे सतरंगी स्वप्न जगाये..

 छलके अंग -अंग से प्रेम सुधा, सुध मन की विसराये...
 प्रेम  प्यास  की लिये  हुए, नयन अधीर से बौराये...

उठे हिलोरें तन -मन में,लिये पिया मिलन की आस..
प्रेम के घुंगरू मन अँगना में,करें छनक छनक  झनकार ...

पिया की आहट भ्रमर सी,  कली बने खिला गुलाब 
मधु रस पान करे भँवरा, प्रेम पीँग के झूले में है झुलाये...

प्रेम रंग में रंग गई,चुनरिया मेरी लाल...
मन गुलाब सा खिल गया देख पिया का प्यार...


                                        पूजा नबीरा


क्यों हम याद करें




कल को क्यों हम याद करें
आज की क्यों ना बात करें, 
छोटी सोच को त्याग हम
क्यों ना आत्मसात करें,
 
मिले जो पल खुशियों के
दर्द का क्यों संताप करें, 
जीवन है,  दुख तो आएगा
हरदम क्यों विलाप करें, 

दृष्टिकोण बदलना होगा
नाकारत्मकता को दूर करें
खुद पर अटूट विश्वास रखकर
निस्वार्थ भाव से कर्म करें, 

सच झूठ की उलझन से निकल
कर्म योग पर ध्यान करें, 
दृढ़ संकल्प से आगे बढकर
हर तूफान को पार करें

कल को क्यों हम याद करें
आज की क्यों ना बात करें।।


                                        अपराजिता मेरा अन्दाज़


विजातछंद


समय जो बीत जाएगा,
कभी क्या लौट पाएगा ?
किसे मालूम क्या कल हो?
चलो जी लें इसी पल को।।

कि माना  राह  है दुर्गम,
मगर चलना हमें हरदम ।
भले कांटे मिले पग पग,
मगर हो पांव ना डगमग ।।

कि माना मुश्किलें आयीं,
घटा  बन के यहाँ छायीं ।
मगर बिल्कुल न घबराना,
समय से जीत है जाना।।

बहारें  लौट  आएंगी,
फिजाएं मुस्कुराएंगी ।
तराने फिर सजाएंगे,
सुहाने  गीत  गाएंगे।।

                                 वन्दना नामदेव



सोचने की बात




धनी-निर्धन हर इंसान
अपनी-अपनी सामर्थ्य अनुसार
धार्मिक स्थलों के लिए श्रृद्धा पूर्वक,
स्वेच्छा से देता है दान,

जरूरत पड़े कभी अगर वहां
तो खुशी से करता है श्रमदान,

आंच जो आए धार्मिक स्थलों पर
तो छेड़ देता है धर्मयुद्ध
और निसार करता है अपने प्राण,

विपरीत इसके मांगने पर भी
बहुत कम लोग करते हैं स्कूलों 
और अस्पतालों के नाम पर दान,

वहां पर स्टाफ और सुविधाएं बढ़ाने पर
बहुत कम लोगों का होता है ध्यान,

उसके लिए आवाज भी कम लोग ही 
उठाते हैं तो फिर देखा किसने श्रमदान,

हमारी प्राथमिकताओं में ही 
जब नहीं हैं ज्ञान और इंसान
तो कितना भला कर लेंगे हमारा
खुद आकर भी धरती पर भगवान।

                                 जितेन्द्र 'कबीर'

भारत मेरी शान




गर्व से लहराता तिरंगा,

कल-कल बहती पवित्र गंगा 


बर्फ़ से ढकीं हिमालय की चोटियाँ,

मक्खन में लिपटी बाजरे की रोटियाँ 


वीर सैनिकों का बल,खेतों में चलते हल,

यहाँ विदेश में याद आते हैं पल-पल।


मेरा वतन मेरी शान ,

करूँ इसका जन्मों गुणगान।


अमरीका से श्रीलंका,

भारत का बज रहा है डंका।


आकर देख ले बाहुबल हमारे वीरों का,

जिसे तनिक भी हो शंका।


इसके रूप हैं निराले,

भगवान यहाँ खुद उतरे बन ग्वाले।


कहीं रेगिस्तान में पड़ें पैरों में छाले,

कहीं बर्फ़ से ढके हैं इसके पर्वत निराले।


यहाँ नीम और पीपल की छाँव,

बैलों की घंटियों से गूँजे गाँव 


है यही वो पावन धरा ,

राम-कृष्ण के पड़े थे जहाँ पाँव।


खुले यहाँ सबके लिए भक्ति द्वार ,

कन्याकुमारी से लेकर हरिद्वार।


वीरों की यहाँ अदभुत गाथाएँ हैं,

पूजनीय कवियों के अतुलित ग्रंथ हैं।


वैज्ञानिकों की असंख्य उपलब्धियाँ हैं,

मनमोहक त्योहारों के यहाँ मेले हैं।


गर्व हमें अपने वीर सैनिकों पर है,

जिनके सुबह-शाम तूफ़ानों में ढलते हैं।


हम सो पायें चैन से,

इसलिए वो पलकें नहीं झपकते हैं 


शीश झुकाकर नमन उन्हें हम करते हैं,

होली,ईद,दीवाली जिनके,सरहदों पर मनते हैं।


आओ इस गणतंत्र दिवस मिलकर लें ये प्रण,

घर-घर हो ख़ुशहालीखेतों में रियाली,

हर इंसान बनकर माली करे देश की रखवाली।


मान रहे सदैव तिरंगे का,

सुबह-शाम पूजन हो गंगा का।


नामों-निशान नहीं रहे दंगे का,

देशभक्ति से भर जाये हृदय हर बंदे का।


महकता रहे भारत रूपी चमन,

प्रगति इसकी चूमे गगन।


मातृभूमि को शत्-शत् नमन,

सोने की चिड़िया कहलाये सदा मेरा वतन 


                     इंदु नांदल 



मिट्टी के घर




जिंदगी खेल- खेल में ,
मिट्टी के घर बनाती है। 
और दूसरे ही पल ,
गिरते ही,
जिंदगी बदल जाती है ।

जिंदगी  खेल -खेल में ,
मिट्टी के घर बनाती है।

कितनी हसरतों से,
सहेज कर सपनों को,
महलों को धीरे -से थपथपाती है।

नन्ही -सी एक ठेस से,
रेत -सी जिंदगी की
 तस्वींरें बदल जाती है।

जिंदगी खेल- खेल में,
 मिट्टी के घर बनाती है।

हर बार बिखर के,
 फिर से ,
सपने सहेजती है।

जिंदगी के खेल में,
रेत- सी कितनी बार,
बनती और बिगड़ती है।
लेकिन यह खेल,
 फिर भी...कहां छोड़ती है।


                                  प्रीति शर्मा "असीम"


नारीशक्ति




हे    नारीशक्ति
ममता व भक्ति 
भावों की तू है 
स्वतंत्र अभिव्यक्ति 
सृष्टि का आधार तू 
कल्पना का सार तू 
आदि न तेरा अंत है
प्रकाशमय अनंत है 
दिव्यता में दिव्य है 
रूप तेरा ये भव्य है 
करूणा की तू है छवि 
प्रणम्य करे उगता रवि 
चांद की तू शीतलता 
सहज तू है सरलता 


प्रेम की तू सागर सी 
अमृत की गागर सी 
श्याम की है बांसुरी 
सृष्टि टिकी वो धुरी 
राम की तू जानकी 
जननी तू विज्ञान की 
मोहन की राधिका 
मीरा सी साधिका 
शिव की  तू शक्ति है 
भावना अनुरक्ति है 
काव्य की भावना 
त्याग और साधना 
क्रोध में  है आग तू 
बसंत का अनुराग तू 
महकता है जिससे जग 
फूल की तू कोमलता 
सहज तू है सरलता 


कालिका तू चंडिका 
काल रूप प्रचंडिका
भवानी तू ज्वाल तू 
असुरों का काल तू 
जननी में  ममता 
धरा की तू क्षमता 
पिता की है तू अस्मिता 
सभी भावों की तू पता 
गंग तू और उमंग तू 
इंद्र धनुष के रंग तू 
बहन का दुलार तू 
पति का है प्यार तू
भाई की तू जान है
सम्मान स्वाभिमान है 


धरती तू आकाश तू 
विश्वास और आश तू 
गीता का तू सार है 
एक रूप में हजार है
रामायण की तू चौपाई 
ईश्वर की भी तू है माई
पुरूषों से तू नहीं है कम
पलक झपकते जग खत्म 
पर्वत की तू पीर है 
गंगा की  तू नीर है 
अनुसुइया का सतीत्व तू
माँ का है ममत्व तू 
कौशिकी का तप है 
वेदों के मंत्र और जप है 


                                       आरती शर्मा


वक्त कहाँ



तुम्हें सोचने का वक्त कहाँ
तुम्हें भूलने का वक्त कहाँ
तुम्हें बुलाने का वक्त कहाँ
आ जाते तुम ख्वाबों में तो
अच्छी बात थी
तुम्हें मिलने का अब वक्त कहाँ।

तुम्हें कुछ कहने का वक्त कहाँ
तुम्हें कुछ सुनाने का वक्त कहाँ
समझ लेते खुद ही
दिल की तन्हाइयों को तो
अच्छी बात थी
गम सुनाने का अब वक्त कहाँ।

दिल लगाने का वक्त कहाँ
दिल बहलाने का वक्त कहाँ
रूठ कर मनाने का वक्त कहाँ
तुम खुद ही इश्क कर लेते
हमसे तो अच्छी बात थी
बार-बार इजहार करने का वक्त कहाँ।


                                 राजीव डोगरा 'विमल'



संस्मरण- "बचपन की दोस्त - मेरी गुलाबों"



मैं और गुलाबों उर्फ पूजा बचपन की सहेलियाँ है।वो बचपन जब दोस्त शब्द का मतलब क्लास में किसी के पास  बैठने से निकाला जाता था।3 बरस की उम्र में जब मैंने स्कूल जाना प्रारंभ किया, तब मेरी पहली सहेली बनी लक्ष्मी। जो साक्षात रानी लक्ष्मी बाई थी।उसने कभी किसी को मेरे आसपास भटकने तक नही दिया।मगर जैसे ही 5th क्लास में वो स्कूल छोड़ कर गई।

तब से गुलाबों मेरे पास बैठने लगी।और जैसा कि शुरुवात में ही मैने आपको बताया, कि हमारे लिए दोस्त शब्द का मतलब था क्लास में पास बैठना।उस हिसाब से अब गुलाबों मेरी दोस्त थी।मगर ये ईष्या का गुण इसमें भी कूट- कूट कर भरा था। गुलाबों से भी तनिक सहन नही होता था कि कोई और लड़की मेरा हाथ पकड़े या मुझसे बात करें।

 "ईष्या, प्रेम के साथ उपजी एक परछाई है। जिसका स्वयं का तो कोई अस्तित्व नहीं, मगर इसकी मौजूदगी से प्रेम की उपस्थिति का पता अवश्य चल जाता है।" 

5th क्लास से शुरू हुई यही दोस्ती 9th क्लास तक ऐसे ही चलती रही।मगर तब एक शख्स के आने से गुलाबों की ईष्या हर हद पार कर चुकी थी। "हद से पार गई हर चीज मनुष्य को मात्र पीड़ा ही देती है, फिर चाहे वह ईर्ष्या हो या प्रेम"। 

9th class में एक नई लड़की हमारी क्लास में आई ,जिसका नाम था अंजली शर्मा। हालाँकि मैं उसके पास नही बैठती थी। मगर उस वक्त उसका कोई दूसरा दोस्त नही था।इसलिए मैंने उससे दोस्ती कर ली। मेरे और उसके विचार बहुत मिलते थे, इसलिए मुझे उससे बात करना भी अच्छा लगता था।मगर ये बात गुलाबों को कतई सहन नही होती थी। उसने शुरुवात में तो अंजली को मुझसे दूर करने की बहुत कोशिश की,मगर जब ये काम हो नही पाया। तो उसने मुझसे ही लड़ना करना शुरू कर दिया। 

"किसी को खोने का डर कभी हमारे मन में इतना पनप जाता है, कि वह हमारे रिश्ते में मौजूद प्रेम को ही मार देता है"।

और कुछ ऐसा ही हुआ हमारे बीच। कक्षा 10 वी में गुलाबो के इसी डर ने उससे वो शब्द भी बुलावा दिये, जो हम दोनों से कभी सोचे नही थे।उसके बाद हमने कई महीनों तक बात नही की।

"बात न करना दूरियों को जन्म देता है और दूरियाँ रिश्ते की गहराई नापने का काम करती है"।

उस वक्त हमारे बीच आई दूरियों से हम दोनों ने बहूत कुछ सिखा।मैंने सीखा की -- "हमें वक्त- वक्त पर अपनों को हमारे जीवन में उनकी अहमियत बताते रहना चाहिए,जिससे कभी उनके मन मे असुरक्षितता का भाव उतपन्न न हो"।

और गुलाबो ने सीखा की -- "हर व्यक्ति का हमारे जीवन में अलग - अलग स्थान होता है।और सबकी अलग- अलग अहमियत।इतनी ईष्र्या भी सही नही की हम अपनों को ही पीड़ा पहुँचानें लग जाए"।

यही लड़ाई हमारे जीवन की पहली और अब तक आखरी लड़ाई थी।इसके बाद से गुलाबों ने ईष्र्या तो की, मगर कभी उसे सीमा से परे नही जाने दिया।और मैंने भी सदैव इस बात का ध्यान रखा कि मुझे खोने का डर उसके मन में न पनपे।

"रिश्ते में उतार चढ़ाव आना स्वाभाविक है,मगर निभाने की इच्छा अगर दोनों तरफ से हो,तो कोई भी रिश्ता कभी वक्त के मझदार में पीछे नही छूटता है"।

और हमारी दोस्ती भी कभी वक्त के साथ पीछे नही छूटी।

क्योंकि हमारी दोस्ती
"एक प्यार का नगमा है,
मौजो की रवानी है।
जिंदगी और कुछ भी नही।
तेरे मेरी कहानी है।

                                     लेखिका- ममता मालवीय 'अनामिका'



।। संत कबीर ।।




मन  का  आइना ,  दोहा  मन  की  पीर ।
कभी हाथ का दीप हैं ,कभी बने शमशीर ।।

बहता तो दोनो जगह ,नदी,नयन में नीर ।
एक बुझाता प्यास को,एक बहाता पीर ।।

दर्द सिंधु - सा हो गया , गहन  और  गंभीर ।
तब गीतों में बूँद - भर, छलका उसका नीर ।।

कष्ट  चुनौती  मानिये , कहते  पीर , फकीर ।
मरने कभी न दीजिए ,निज आँखों का नीर ।।

दोहा - गीत के फेर में ,  उलझें  राँझा-हीर ।
अर्थ  प्रेम  का  बाँचने ,आओं पुनः कबीर ।।

हमने   नापी  उम्र-भर , शब्दों  की  जागीर ।
ढाई आखर लिख हुए ,जग में अमर कबीर ।।

पीड़ा जब मन में बसी ,तन-मन हुए अधीर ।
रोम - रोम गाने लगा , बनकर  दास कबीर ।।

                          गोपाल कौशल