साहित्य चक्र

31 May 2021

।। माँ ।।




माँ तू ममता की मूर्ति है,
तुझे दोष न दिखे संतानों में ।


नव मास उदर में तूने पाला 
दुःख सहकर भी मुझे संभाला
सौ बार न्योछावर तू हो जाती
मेरी मीठी मीठी  मुस्कानों मे,
माँ तू ममता की मूर्ति है,
तुझे दोष न दिखे संतानों में ।।1।।


मैं हंसता हूं तू हँसती है
मैं रोता हूँ तू रोती है।
मेरा संसार सजाती तुम 
अपने सारे अरमानों में,
माँ तू ममता की मूर्ति है,
तुझे दोष न दिखे सन्तानों में ।।2।।

मैं जगता तो जागे तू 
मैं सोऊँ तो सोये तू ।
मेरा दुख सुख सब तू जाने
पार करे मुझे तुफानो में,
माँ तू ममता की मूर्ति है,
तुझे दोष न दिखे सन्तानों में ।।3।।

आ तेरे चरणों को मैं चूम लूं
 आँचल में  मैं तेरे झूम लूँ मैं ।
तेरी गोद है स्वर्ग से सुंदर
तू श्रेष्ठ सभी भगवानों में ,
माँ तू ममता की मूर्ति है,
तुझे दोष न दिखे संतानों  में ।।4।।


ना होने से रहे अंधेरा,
होने से रहे सवेरा
तू अकेली मेरी माँ है ,
सारे जग के बेगानों में।        
 माँ तू ममता की मूर्ति है,      
तुझे दोष न दिखे संतानों में ।।5 ।।


                                  "मुल्क मंजरी"


29 May 2021

हां.... हां.... मुझे प्यार हो गया है



    संजना की शादी की उम्र बीती जा रही थी। घरवालों के लाख समझाने पर भी शादी के लिए राज़ी नहीं हो रही थी। माता-पिता दोनों वृद्ध हो चुके थे। उन्हें संजना के भविष्य की चिंता खाए जा रही थी।अब घर में उसके भाई-भाभी ही थे जो उसे समझा सकते थे।





     एक दिन एक अच्छे घराने से संजना के लिए शादी का रिश्ता आया। बड़ी भाभी ने उसे खूब समझाया लेकिन शादी और पुरुष के बारे में उसके विचार दृढ़ हो गये थे। उसने अपनी बड़ी भाभी से कहा-"शादी और प्यार सब बकवास है। मैं सामान्य घरेलू स्त्री की तरह किसी पुरुष के आधिपत्य को स्वीकार नहीं कर सकूंगी। मैं शादी करके जिंदगीभर किसी पुरुष के साथ बंधन में नहीं बंध सकती। मुझे कभी किसी से प्यार हो ही नहीं सकता।"

     वृद्ध माता-पिता ने उसे खूब समझाया कि ऐसे अच्छे रिश्ते बार-बार नहीं आते। बड़े भाई ने कहा-"अरे!पगली, हां कह दे। भविष्य का विचार कर। माता-पिता जिंदगीभर नहीं बैठे रहेंगे। जवानी तो अकेले बीत जाएगी लेकिन पिछली जिंदगी में अकेली कैसे रहेगी?" बड़ी भाभी ने भी कहा-"हमारे समाज में अकेली स्त्री के लिए जिंदगी बिताना बहुत दुष्कर है।"

       आखिर माता-पिता और भाई-भाभी ने जबरदस्ती करके उसे शादी के लिए मनवा लिया। धूमधाम से शादी हुई। संजना घर से बिदा हुई। माता-पिता और भाई-भाभी को चिंता तो थी कि वह ससुराल में टिक जाए तो अच्छा।

         संजना का पति सुजय खूब पढ़ा-लिखा और समझदार था। उसने संजना को गृहलक्ष्मी के रूप में खूब आदर दिया और अनहद प्यार किया।

        शादी के एक महीने बाद वह अपने मायके आई। सुबह आई और शाम होने पर अपने ससुराल जाने के लिए तैयार हो गई। बड़ी भाभी ने कहा-"अरे! पगली,पहली बार आई हो। अब पूरी जिंदगी वहीं पर बितानी है। दो-तीन दिन बाद जाना।"संजना ने कहा-"भाभी!ये मुझे क्या हो गया है? मैं निरंतर उनके ख्यालों में खोई रहती हूं।पूरा दिन उनकी देखभाल के बारे में सोचती रहती हूं।उनका पसंदीदा खाना बनाना और घर के काम-काज में समय कहां बीत जाता है इसका पता ही नहीं चलता।"भाभी ने कहा-"अरे! पगली,यही तो प्यार है।"

          संजना ने शरमाते हुए कहा-"हां.... हां.... मुझे प्यार हो गया है।"



                                                        समीर उपाध्याय


आत्मा का अस्तित्व एवं रहस्य




हमारा शरीर पंच तत्वों यानी जल, आकाश, वायु, अग्नि और पृथ्वी से मिलकर बना है। जब किसी की मृत्यु होती है, तो शरीर इन्हीं पंचतत्वों में विलीन हो जाता है और आत्मा अदृश्य रूप में मौजूद रहती है। यदि मर चुके व्यक्ति ने जिंदगी भर अच्छे कर्म किए हैं, तो वैदिक ग्रंथों के अनुसार उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। तब आत्मा जन्म मरण के चक्र से मुक्त होकर आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाती है।

श्रीमद्भागवत् गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘आत्मा कभी नहीं मरती’। आत्मा अमर है, आत्मा ना जन्म लेती है ना मरती है। आत्मा एक ऐसी ऊर्जा है, जो एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश करती है और समय आने पर उस शरीर को छोड़कर चली जाती है और तब तक किसी नए शरीर में प्रवेश नहीं करती जब तक ईश्वरीय आदेश ना हो।

आत्मा का कोई धर्म नहीं, ना ही वह पुरुष है और न ही वह स्त्री, वह तो परमात्मा का अंश मात्र है। परमात्मा न हिंदू है, ना मुस्लिम है, ना सिख, ना ईसाई है ना ही यहुदी और ना ही बौद्ध, परमात्मा से सारा संसार जन्म लेता है। आत्मा एक ऐसी जीवन-शक्‍ति है, जिसके कारण हमारा शरीर जिंदा रहता है। यह एक दैवीय शक्ति है, यह कोई व्यक्ति नहीं है। इस जीवन-शक्ति के बिना हमारे प्राण छूट जाते हैं और हम मिट्टी में फिर मिल जाते हैं। जब शरीर से आत्मा या जीवन-शक्ति निकलती है, तो शरीर मर जाता है और वहीं लौट जाता है, जहां से वह निकला था यानी पृथ्वी के पंचतत्वों में। उसी तरह जीवन-शक्ति भी वहीं लौट जाती है, जहां से वह आई थी यानी परमात्मा के पास।

महाभारत युद्ध के पहले जब अर्जुन हाथ जोड़कर श्रीकृष्ण से कहते हैं कि, ‘मैं अपने सामने खड़े पितामह, गुरु, चाचा, ताऊ, भाई को नहीं मारूंगा। तब अर्जुन को यूं शोक करते देख कर श्रीकृष्ण ने समझाया कि इस संसार में कोई शोक करने योग्य नहीं है, क्योंकि यहां कोई मरता ही नहीं है। सभी आत्माएं हैं और आत्मा कभी नहीं मरती।

जब अर्जुन ने श्रीकृष्ण से फिर पूछा, ‘वह कौन है जो अमर आत्मा और नश्वर शरीर का बार-बार संयोग करवाता है?’ तब श्रीकृष्ण बोले, ‘एक और शरीर है, जो आत्मा के लिए भीतर का वस्त्र है। वह है सूक्ष्म शरीर। उसे अंत:वस्त्र भी कह सकते हैं। वह शरीर एक प्रकार के विद्युत कणों से ही निर्मित है। वह मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार से बना है। इसे ‘कारण शरीर’ या जीवात्माभी कहते हैं। यह शरीर पिछले जन्म से साथ आता है। स्थूल शरीर मिलता है माता-पिता से, सूक्ष्म शरीर मिलता है पूर्वजन्म से, लेकिन आत्मा तो सदा शाश्वत ही है। सूक्ष्म शरीर न हो, तो स्थूल शरीर ग्रहण नहीं किया जा सकता। सूक्ष्म शरीर छूटने का अर्थ है ‘मोक्ष’। सारी साधनाएं इस सूक्ष्म शरीर को छोड़ने के लिए, इससे मुक्ति के लिए ही की जाती हैं।’

आधुनिक समय में ऐसे कई प्रयोग किए गए, जिनसे यह पुष्टि हो सके कि आत्मा का अस्तित्व सचमुच है। ऐसा ही एक प्रयोग किया था फ्रांस के डॉक्टर हेनरी बारादुक ने उन्होंने एक विशेष कैमरा बनवाया और मृत्यु के बाद निकलने वाली आत्मा की फोटो लेने की तैयारी की। संयोग से एक बार उनका लड़का बहुत बीमार हुआ। उसके बचने के कोई लक्षण दिखाई न दिए तो इस वैज्ञानिक ने परीक्षण करने का मन बनाया। वैज्ञानिक ने इससे पहले अपनी पत्नी पर यह प्रयोग आजमाया था। लेकिन उस समय सिर्फ प्रकाश किरणों की ही पुष्टि वह कर पाए थे।

कैलीफोर्निया के वैज्ञानिक ने तो इस तरह का एक सार्वजनिक प्रदर्शन भी किया, जिसमें उन्होंने अखबार के रिपोर्टर को बुलाया। उन्होंने वहां साधारण कैमरों से कुछ रहस्यमय किरणों के चित्र लिए थे। इस प्रयोग के बाद अमूमन वैज्ञानिकों ने यह माना कि मनुष्य शरीर में कोई चैतन्य तत्व, कुछ रहस्यमय किरणें, कोई विलक्षण तत्व और प्रकाश है अवश्य पर उसका रहस्य वे नहीं जान पाए।


                                  प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"


जाति है नाम मेरा




जाति है नाम मेरा मैं सब कुछ करवाती हूँ
पैदा होते ही मैं सबके साथ चिपक जाती हूँ
कर्म से मेरा कुछ नहीं लेना देना
मैं तो बस जन्म से ही पहचानी जाती हूँ
जाति है नाम मेरा......

दफ्तर में यदि किसी काम के लिए जाते हैं
तो सबसे पहले फार्म पर मेरा नाम लिखवाते हैं
नेताओं ने मेरे नाम पर बांट दिया समाज को
दंगा फसाद हो जाये तो पहले मैं ही याद आती हूँ
जाति है नाम मेरा.....

मेरे नाम पर ऊंच नीच का खेल खेला जाता है
मुझे समझ नहीं आता हर जगह मुझे क्यों घसीटा जाता है
पैदा होते ही लिख दिया जाता है माथे पर मेरा नाम
जितने मुंह उतनी बाते मैं सब सुनती जाती हूँ
जाति है मेरा नाम.....

ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र नाम दिए थे मुझे
फिर बांट दिया उप जातियों में क्या मिल गया तुझे
मेरे नाम पर तूने खोखला कर दिया समाज
भाई चारे को तो बिल्कुल कर दिया बर्बाद
चुपचाप रहती हूं मैं चुपचाप सहती जाती हूँ
जाति है नाम मेरा....

भगवान मंदिर में तो प्रतिदिन आते है
पर मुझे देख कर बाहर बैठा अंदर नहीं बुलाते है
भगवान ने ही मुझे बनाया फिर भी मेरा इतना तिरस्कार
क्यों नहीं वो करवाता मुझसे भी अपना श्रृंगार
अंदर ही अंदर घुट कर मैं रोज़ मरी जाती हूँ
जाति है नाम मेरा....

न मैं हिन्दू न मुस्लिम न सिख न मैं हूँ ईसाई
सबकी हूँ मैं बहन वो सब हैं मेरे भाई
फिर मेरे नाम पर ही क्यों करते हैं सब लड़ाई
यह बात आज तक मैं नहीं समझ पाई
अगड़ी पिछड़ी के नाम पर फुसलाई जाती हूँ
जाति है नाम मेरा मैं सब कुछ करवाती हूँ

                                                        रवीन्द्र कुमार शर्मा



बचपन की यादें




याद आती है वो बचपन की यादें
वह अल्हड़ पन
 वो किस्से कहानियों की रातें
वो दिनभर थक कर
चूर हो जाना
वो रात में परियो के सपनो में 
खो जाना।
उम्र छोड़ आई,
बचपन की  दहलीज ।
मगर आज भी दिल के
 किसी कोने में 
मेरा बचपन मुस्कुराता है।
अब वो  बरसाते नहीं होती
अब  घर के आंगन में 
नींव की छांव नहीं होती।
वो  अल्हड़ पन
अब इस उम्र में 
नहीं झलकता।
अब पहले जैसी बंदिशें भी नही,
अब चेहरे की झुर्रियां,
 उम्र का एहसास कराती है।
मगर मैं खुश हो जाता हूं 
मेरे बचपन को याद करके
 जब मेरे पुत्र के बचपन में 
चुपके से मैं जी लेता हूं।
अपना बचपन।।

                                   कमल राठौर साहिल 


* हम अपने भाग्य के निर्माता स्वयं हैं *




जिंदगी के किसी भी मोड़ पर यदि हम असफल हो जाते हैं तो इसका अर्थ यह कतई नहीं हो सकता है कि इस चीज को हासिल करना हमारे भाग्य में था ही नहीं बल्कि असफलता यह दर्शाती है कि सफलता प्राप्त करने के लिए पर्याप्त प्रयास हमने किया ही नहीं। हमें सुख या दुःख देने की शक्ति किसी के पास है ही नहीं। वो तो हमारे कर्म हैं जो हमें सुख या दुःख के रूप में मिलता है। हम जिस प्रकार के कर्मो को करते हैं उसी के अनुरूप हमें फल भी भोगना पड़ता है। परमात्मा किसी के भाग्य में सुख और किसी के भाग्य में दुःख लिखता ही नहीं है यह तो हम सबके अपने कर्मों का फल है। अतः अपने कर्मों द्वारा हम अपने भाग्य को सँवार सकते हैं। यानि हम अपने भाग्य के निर्माता स्वयं है।

      कर्मो के संबंध में गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है। सकल पदारथ है जग माही। कर्महीन नर पावत नाही।। इसका मतलब यह हुआ कि इस दुनियाँ में सारी चीजें हासिल की जा सकती है लेकिन वे कर्महीन व्यक्ति को कभी नहीं मिलती है। दुनियाँ में कोई भी चीज ऐसी नहीं है जिसे हम प्राप्त नहीं कर सकते हैं आवश्यकता है तो उसे प्राप्त करने के लिए पर्याप्त कर्म करने की।

       इसी प्रकार गीता में भी भगवान श्री कृष्ण ने कर्म की प्रधानता का विस्तृत वर्णन किया है और हमें हमारे कर्म के आधार पर ही फल की प्राप्ति होती है। कर्म केवल शारीरिक क्रियाओं से ही संपन्न नहीं होती बल्कि कर्म को संपन्न करने में हमारा मन ,विचार एवं भावनाओं का भी हाथ होता है।

 हिंदी साहित्य के प्रख्यात राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त ने भी कहा है- 

 जब प्राप्त तुम्हें सब तत्व है यहाँ
 फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
 तुम सत्त्व सुधा रस पान करो
 उठकर अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो, न निराश करो मन को

           अर्थात जिस भी चीज को हम चाहते हैं अपने जीवन को बदलने के लिए या लक्ष्य को पाने के लिए वह सबकुछ पहले से ही हमारे पास विद्यमान है। वह सत्त्व कहाँ जा सकता है। इसलिए हे नर उठो और उस सत्त्व को ढूढो क्योंकि परमपिता परमात्मा ने वह सारी चीजें पहले से ही तुम्हें दे रखा है। जरूरत है तो सिर्फ उसे पहचानने और उसका सदुपयोग करने की।

               इसलिए हे नर उठो और इस मौके को पकड़ो और अपने जीवन के सत्य को प्राप्त करने की कोशिश करो। क्योंकि तुम ईश्वर की अमूल्य कृति हो। उठो और अपने अंदर व्याप्त निराशा का परित्याग करो सत्त्व को प्राप्त कर अमृत का पान करो। इस प्रकार हम देखते हैं कि हम अपने भाग्य के निर्माता स्वयं हैं।


                                                कुमकुम कुमारी 'काव्याकृति'


काश कभी ऐसा होता





भ्रष्ट गरीबी और लाचारी, छोड़ अगर बाहर आते
ज्ञान मशाल हाथ में लेकर, विश्व गुरू हम बन जाते
मतिभ्रम बिमुख मार्ग से जग को, उचित राह हम दिखलाते
श्रुति ज्ञान मार्तण्ड रश्मि बन, तमस धीय को हटवाते
दीन हीन बन जगत में कोई, भूखे पेट नहीं सोता
गर्व से कहते मानव हूंँ मैं, काश कभी ऐसा होता

भाव बदलता देश प्रेम कर, कार्य राष्ट्र का मैं करता
भूख भ्रष्ट लाचार गरीबी, शब्द देश में ना रहता
अंत: करण प्रेममयी गंगा, जनमानस के हृदय बहता
नाम बताता बाद कही, "मानव" हूंँ हर जन कहता
हंँसी गूंँजती हर पल हरदम, बिलख नहीं कोई रोता
ग्लानि हानि ईर्ष्या नहीं होती, काश कभी ऐसा होता

बिना डरे ही अपनी बातें, विश्व पटल पर कह जाते
झूठ बिना ही जीवन होता, काश ये मौका हम पाते
छीन झपट के नहीं कभी, बांँट जरा रोटी खाते
वसुधा बनती घर अपना, भयभीत नहीं कोई होता
सपने सच अब होने लगते, काश कभी ऐसा होता
काश कभी ऐसा होता


                                   डॉ. सारिका ठाकुर “जागृति”


कुछ इस तरह


हम बिखरगे
कुछ इस तरह
कि तुम संभाल भी न पाओगे।
हम टूटेंगे
कुछ इस तरह
तुम जोड़ भी न पाओगे।
हम लिखेंगे
कुछ इस तरह
कि तुम समझ भी न पाओगे।
हम सुनाएंगे दास्तां
कुछ इस तरह
कि तुम कुछ कह कर भी
न कह पाओगे।
हम जाएंगे इस जहां से
कुछ इस तरह
कि तुम्हारे बुलाने पर भी
कभी लौटकर न आएंगे।

 

                                          राजीव डोगरा 'विमल'



लाचारी की तस्वीर का सच...




हीरा का परिवार मध्यम वर्गीय था। उसके परिवार की आय का स्त्रोत हीरा ही था। वह एक छोटी सी दुकान करता था। साप्ताहिक हाट बाजारों में व्यवसाय कर वह जीवन यापन के लिए कमा लेता था। वह जितना मिल रहा था उसी में खुश था। जिस दिन वह बाजार करने नहीं जाता था। अपना समय परिवार, इष्ट मित्रों एवं सहयोगियों के साथ बिताता था । वह व्यवहार कुशल भी था। उसका एक बेटा था ,जो ग्यारहवीं कक्षा में पड़ रहा था। उस साल महामारी के कारण लॉक डाउन लग गया ।शासन ने सभी साप्ताहिक हाट बाजार बंद करने के आदेश दे दिए थे। वह रोज ही समाचार पत्र पढ़ता था सो स्थानीय खबरें भी उसे मिल जाती थी। लॉक डाउन के चलते कुछ समाजसेवी गरीबों की मदद कर रहे थे जिसमें उसके कुछ रोज उठने बैठने वाले भी थे ।

हीरा संतोषी व्यक्ति था। उसने ज्यादा चिंता नहीं की,और परिजनों से बोला कुछ दिनों की बात है। महामारी खत्म होते ही फिर बाजार करने लगूंगा। कुछ दिन बीत गए हीरा अपनी जमा पूंजी से खर्च चला रहा था। परंतु महामारी का प्रकोप बढ़ने से लॉक डाउन भी बढ़ा दिया गया। अब हीरा की जमापूंजी भी खत्म हो रही थी,परिवार चलाना मुश्किल हो रहा था। 

इसी बीच बीमारी ने हीरा को घेर लिया। वह बीमार हो गया। बीमारी के दौर में हीरा का परिवार टूटने लगा था।उसके बच्चों का खाने का जुगाड़ भी मुश्किल हो रहा था। कोई भी उसकी खबर पूछने वाला नहीं था, न वो समाजसेवी उसके घर का हाल जानने पहुंचे थे। जो उसके परिचित एवं जानने वाले थे। मुश्किल वक्त गुजर गया, धीरे धीरे हीरा की बीमारी ठीक हो  रही थी । लॉक डाउन भी खुल गया था।वह फिर से कारोबार करने के लिए हाट बाजार जाने लगा था।उसको आमदनी होने लगी थी।  उसके परिवार की भोजन की व्यवस्था हो गई थी। 

एक दिन हीरा दिहाड़ी व्यवसाय करने नहीं गया था। उस दिन अचानक उसके घर के  दरवाजे को कोई खटखटाता है।उसका परिवार चौक उठा , हीरा ने दरवाजे खोल कर देखा तो चार पांच लोग उसके दरवाजे पर खड़े थे।इसमें हीरा के परिचित समाजसेवी भी थे।परिचित होने के कारण हीरा ने सभी को अंदर बुला लिया। हीरा कुछ समझ पाता उससे पहले एक युवक ने पांच किलो आटे की थैली और दो किलो शक्कर देते हुए कहा आपकी बीमारी के बारे में पता चला था।हम लोग गरीबों को राशन बांट रहे हैं। आप थोड़ा इस आटे की पालीथीन को पकड़कर खड़े हो जाइए ........ कुछ लोग हीरा के बाजू में आ गए और एक युवक ने  मोबाइल में फोटो खींच ली। हीरा का माथा ठनका उसने फोटो वाले को टोंकते हुए कहा रुको और समाजसेवा के नाम पर ढोंग करने वाली टोली से मुखातिब होते हुए कहा आपने हमें पांच किलो आटा दिया .... मेहरबानी है! 

आप ये सब किसी गरीब की सहायता कर रहे हो या उसके परिवार की लाचारी का तमाशा बना रहे हों। दूसरे दिन अखबार में हीरा और समाजसेवियों की तस्वीर के साथ केप्शन छपा था । नगर के समाजसेवियों  ने गरीबों को एक हजार खाद्यान्न किट बांटी।


 

                                          लेखक- राजेश शुक्ला


विडम्बना भी आत्महत्या कर ले

_______________

विवाह के लिए 
लड़की देखने वाले आ रहे... 
सुनकर लड़की अंदर तक हर्षित
एक तरफ घर छूटने का दर्द
दूसरी तरफ़ पति प्रेम की ललक
फिल्मों के गानें तैरने लगे मन में
देह की हर इंद्रिय के द्वार से खुले
हर द्वार पर काल्पनिक पति..! 
तभी एकाएक माँ ने चेताया
मंदिर आ गया आखें खोलो
वो सब लोग वहीं है.. 
साड़ी ठीक करो... 
मंदिर पहुंचकर कुछ समझ पाती
कि दागे जाने लगे थे सवाल.. 
पहला सवाल... 
तुम्हें खाना बनाना आता है? 
न सपने पूछे? न पूछी पसंद
लड़की का पर्यायवाची 
आज रसोई सा लगा... 
मन हुआ खिन्न परन्तु प्रसन्न.. 
आखें खोज रहीं थीं पति
तभी कोई मूँछ पर ताव लिए 
दाग दिया दूसरा सवाल
रसगुल्ले बना लेती हो? 
मेरे परिवार को जोड़कर रखो तो? 
लड़की ने हाँ में सिर हिलाया 
आ रही थी दारू की बदबू
पूछा कि दारू की...? 
वह बोलता कि ननद ने कहा 
गंवार हो, फ्रैंच डियोडेंट लगा
होने लगी नगदी जेवर की बातें 
पांच लाख नगद, मोटरसाइकिल 
लड़की ने किया मना माता-पिता को
सभी ने इसे रिवाज का नाम दे डाला
पुराने खेत का टुकड़ा बिका
तब जाकर अच्छा विवाह हुआ.. 
ससुराल पहुंचकर हो रही थीं बातें
रिश्तेदार बोले कम मिला दहेज़, 
नाती होने पर, मांग लेना पच
धरो धैर्य! बहू को दबाकर रखो
मुंह दिखौनी की रस्म पूरी करो
कभी छोटी, कभी मोटी, 
कभी काली, कभी विकलांग, 
कभी बेरोजगार, कभी अनपढ़, 
कभी जाहिल, कभी कुरूप 
मुंह दिखौनी में दूर से आतीं
यह अपमानित जहरीलीं बातें 
आवाज़ों को सोखकर,रही खामोश! 
रात्रि शराब में तर पति का सवाल
मुझसे पहले कोई दूसरा तो नहीं? 
लड़की बोली 'आप प्रथम प्रेम' 
दो बातों से पहले वह जमीन पर गिरा
मिला शराबी पति, देख मन रो पड़ा
हे! विडम्बना तू कर ले आत्महत्या 
मेहंदी के हाथों ने स्व: को धुला
भारी लंहगा, भारी उपदेशों का बोझ
उतार, सादा साड़ी में गुमसुम बैठी रही
सारे सपने सारी उम्मीदें अश्रुरूप.... 
रातभर गश्त खा खाकर गिरतीं रहीं
सुबह हुई नाश्ता, फिर शौचालय सफाई 
तमाम उपाय किये, न छूटी नशे की लत
अमीरों के घर में पी जाती शराब
तुम भी पियो भूल जाओ अपना गांव
शहर की मॉडर्न लाईफ जियो 
यह सुनकर सोचती दुमँही इनकी सोच! 
न  जिंदगी में कभी रविवार आया 
न जिंदगी ने असली प्रेम जाना
लग गयी इस बीच सरकारी नौकरी 
छिड़ गयी ट्रांसफर सैलरी में जंग
मायके पैसे मत देना, 'मैं' की ठनी
सैलरी शकरूपी जंग में छूटा मायका
फिर नाती न होकर नातिन हुई
पूरे परिवार में पच की इच्छा पची
सभी का रोष हो गया था दूना
गर्भावस्था से लेकर पैदा तक
न दर्द पूछा न आह जानी
बस फोन पर क्या पैदा हुआ? 
ससुर ने बहू का जब पक्ष लिया 
सास ससुर का झगड़ा बढ़ा
सास बोलीं तुम अपना शुगर देखो
ज्यादा मीठा तोलमोल के बोलो
चुपचाप बहू लाती थी मिठाई 
कभी शुगरफ्री रबड़ी, रसमलाई 
जहां ससुर बिटिया बिटिया कहें, उधर
पति की दारू की दुर्गंध सी धूमिल 
नित्य अतृप्त वासना को झेलकर 
खुमारी दबा, सुबह चार बजे जागना
सफाई आदि, भोजन बनाती रही
शाम थकी आकर न पूछा हाल
पूछा तो बस शाम को क्या बनेगा? 
जैसे जीवन से निचोड़ 
लिया गया हो बूंद- बूंद जीवन
भोजनालय से शौचालय तक
बस जिंदगी से जूझती रही
वो परिवार की नाव को बनाती, 
खेवती, उबारती, नींव से 
सामंजस्य बैठाती रही
वह स्व: की नींव से घिसती, 
घुलती, रिसती रही, रिसती रही 
खुद के रिसाव से खुद को सीती रही
अतत:, रिसाव के धागे भी पड़े कम
बढ़ गया था इतना ज्यादा जख्म़ 
वो जर्जर जिस़्म जमीन पर पड़ा
फिर कर दिया गया अग्नि को अर्पण 
ससुर फूट कर रो भी न सके... 
देवर बोला इनकी नौकरी मुझे मिले? 
बातें आसपास भोजन की होने लगीं
तेहरवीं कब है? अकेले मर्द का क्या? 
भोजन के लिए दूसरा व्याह जरूरी है? 
हे! विडम्बना तू कर ले आज आत्महत्या 
भोजन के नाम पर प्रथम 'प्रेम' नदारद 


                                        आकांक्षा सक्सेना 


।। मुहब्बत ।।




माना कि' वक़्त ने, हमारे रास्ते; अलग कर दीए।
हमारे तकदीर ने, हमें क़दम क़दम पे धोखे दीए।
कहीं ख़्वाबों में, हम फिर कभी; टकरा ना जाए।

सच कहूं; मैं तेरी यादों सो भी किनारा करता हूं।
क्यों जो, तेरी आंखो में आंसू देखने से डरता हूं।
मैं दिल से, आज भी; तुझसे; मुहब्बत करता हूं।

बस इसी डर से डरकर, तेरे ख़त भी जला दिए।
पर, तेरे ख़तों की यादों में; मैंने दिए; जला दिए।
डरता था कहीं' दियों की लौ मद्धम हो ना जाए।

सो आजकल मैं' तेरी यादों में, लिखता रहता हूं।
क़लम के सहारे, रोज़ तारे; गिनना सीख रहा हूं।
आए दिन, अपनी मुहब्बत पे' गीत लिख रहा हूं।


                                       अमनदीप सिंह रखड़ा


मैं शब्दों को पिरोता हूँ




जी हुजूर मैं शब्दों को पिरोकर 
कुछ पंक्तियाँ लिखता हूँ ।    
उनके बारे में लिखता हूँ, 
जो धर्म को अपना हथियार बनाकर, 
समाज की नुमाइश करते हैं।। 

मैं उनके कारनामों को लिखता हूँ, 
जो भेदभाव के नाम पर समाज में ईष्या फैलाते। 
उनकी असलियत बताता हूँ, 
जो चोरी करके रपट लिखवाते हैं।। 

मैं भ्रष्टाचारियों के खेल का पर्दाफाश करता हूँ , 
जो जनता के हिस्से का खाकर डकार तक नहीं लेते। 
उन चुगलखोरों की आँखें खोलता हूँ  , 
जो चुगली करके दूध के धुले बन जाते  । 

जी जरूर मैं शब्दों को चुनकर  , 
कुछ अल्फ़ाज़ लिखता हूँ । 

सफेद कुर्ताधारी में छिपे, 
काले कुर्ते के कारनामे लिखता हूँ। 
उन फिजूल बातूनी बाजीगरों  की, 
पोल खोलता हूँ। 
जो जनता को अपनी रसीली बातों में बहकाता है । 

समाज में फैली कुरीतियों का जनाजा निकालता हूँ, 
अन्धविश्वास को मिटाने की कोशिश करता हूँ। 

जी हुजूर मैं शब्दों को पिरोकर , 
कुछ पंक्तियाँ लिखता हूँ 
अपनी व्यथा आप तक, 
और आपकी समाज तक पहुँचाता हूँ। 
जी जरूर मैं कुछ अल्फाजो ंको पिरोता हूँ।। 


                                              कैलाश उप्रेती "कोमल"