बिरजू चारपाई पर बैठा गहन चिंता में डूबा था। तभी लालाजी का मुंशी ज़ोर से किवाड़ की कुंडी बजाता है- बिरजू ओ बिरजू दरवाज़ा खोल। बिरजू काँपते हाथों से दरवाज़ा खोलकर- "राम-राम" मुंशी जी, आइए बैठिये।
मुंशी- बैठने का टाइम नहीं है, लालाजी ने पैसे के लिए बोला है।
मुंशी- लालाजी अब और मोहलत नहीं दे सकते! तेरे पास सिर्फ़ कल तक का समय है, या तो लालाजी के पूरे पैसे लौटा दे; नहीं तो तेरे गिरवी रखे खेतों को बेचकर सूद सहित सारा पैसा वसूला जाएगा।
जब तुम्हारी पैसे चुकाने की औकात नहीं है तो उधार लेते क्यों हो? यह कहकर मुंशी बुदबुदाता हुआ चला गया। उसके जाते ही बिरजू वापस निराशा के सागर में खो गया।
कुछ देर बाद बिरजू की पत्नी अपने पुराने ज़ेवर बिरजू के हाथ में रखते हुए बोली- इन्हें बेचकर लालाजी का कर्ज़ा चुका दीजिये। मैं और ज़्यादा आपकी बेइज़्ज़ती बर्दाश्त नहीं कर सकती। जब हमारे बच्चे किसी लायक बनेंगे तब फिर से बनवा लूँगी। अपनी पत्नी के त्याग और समर्पण को देखकर बिरजू की मायूस आँखें छलछला उठी।
- आनन्द कुमार
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