तुम्हारे मौन में वह गुंजन है
जो समय के पार कहीं ठहर जाती है,
और मैं, अपनी विह्वलता लिए
तुम्हारी परछाईयों के वृत्त में घूमती हूँ
तुम कितने असीम, कितने अपरिचित
पर फिर भी, मेरे हर शब्द, हर आहट के स्रोत
मेरे अस्तित्व पर तुम्हारे हस्ताक्षर
तुम्हारी चुप्पी में
कोई कथा ठहरी है
जिसे किसी प्राचीन ऋषि ने अधूरा छोड़ दिया था
किसी प्रतीक्षा का अंत
या शायद आरंभ
मैं तुमसे प्रश्न करती हूं
और तुम उत्तर नहीं,
बस एक दिशा देते हो
यदि मैं इस प्रश्न-पथ पर भटक जाऊं
यदि मेरी व्यथा के बिंदु मुझे बांध लें
तब तुम्हारी शांत श्वास मुझे पुकारेगी
तुम्हारे सर्द पत्थरों की ऊष्मा
मुझे मेरे भीतर का ताप भुला देगी
हे हिमालय,
तुम्हारे सानिध्य में
वह अनवरत हलचल है
जिसमें अनंत स्थिरता है
मैं वहां सब कुछ खोकर
स्वयं को पुनः रच लूंगी
- अनुजीत इकबाल
No comments:
Post a Comment