साहित्य चक्र

15 December 2024

संबंधों से संबंधित एक दृष्टिकोण यह भी




किसी भी संबंध का आधार आवश्यकता,प्रेम, सामाजिक या इनका मिलाजुला रूप कुछ भी हो सकता है। हमारे परिवार, दोस्त, रिश्तेदार, कार्यालय, स्कूल या व्यापार इत्यादि हर जगह आपसी संबंधों की समझबूझ से ही जीवन चलता है। रिलेशनशिप या संबंध किन्हीं दो व्यक्तियों या किसी एक समूह का दूसरे समूह के साथ भी हो सकता है। संबंध प्रायः वहीं बनते हैं जहां वैचारिक समानताएं हों, एक दूसरे के उद्देश्यों की पूर्ति हो। ये संबंध आजीवन चलें आवश्यक नहीं,ये उद्देश्य पूर्ति के साथ समाप्त भी हो सकते हैं। इन संबंधों को कोई नाम नहीं दिया जा सकता। लेकिन परिवार, रिश्तेदार या दोस्त से बने संबंधों को नाम दे सकते हैं। 


एक संबंध प्रेम का है जो स्त्री और पुरुष के बीच हो सकता है, और वह शारीरिक आकर्षण के कारण भी हो सकता है और आत्मिक स्तर पर भी हो सकता है। इस तरह के संबंधों को कोई विशेष नाम नहीं दे सकते।लेकिन फिर भी इसमें लोग एक दूसरे से जुड़ सकते हैं और निभा सकते हैं। शारीरिक आकर्षण से बना संबंध शरीर से शुरू होकर शरीर पर ही खत्म हो जाता है इसे प्रेम की पूर्णता नहीं कह सकते और न ऐसे संबंध ज्यादा समय तक टिकते हैं।

आत्मिक स्तर पर बना संबंध स्थाई होता है, जो हृदय से बनता है,वैचारिक समानता, समर्पण से बनता है। ऐसे सम्बन्धों में कोई सामाजिक बंधन नहीं होता और निस्वार्थ संबंध बनता है।अपनी अपनी जिंदगी में ऐसे व्यक्ति स्वतंत्र हैं और उन्हें संबंध में बंधे होते हुए भी कोई बंधन महसूस नहीं होता। यह संबंध प्रेम की मजबूत नींव पर आधारित होता है, और आम संबंधों से बहुत ऊपर उठ जाता है, आत्मिक स्तर को छूता है। वहां शरीर प्राथमिक नहीं रहता, अपितु आत्मा प्राथमिक रहती है, एक जैसी विचारधारा और आत्मिक संबंध में प्रेम परिपक्व होता है और शारीरिक स्तर पर भी फलता फूलता है। प्रेम पूर्ण संबंध आजीवन चलता है जहां तर्क वितर्क तो हो सकते हैं, लेकिन कुतर्क के लिए कोई जगह नहीं। वैचारिक आदान प्रदान एक दूसरे की कमी को पूरा कर देते हैं,क्योंकि प्रेम एक दूसरे के प्रति समर्पण की भावना के बिना नहीं हो पाता।

हालांकि कुछ लोगों का कहना यह भी है कि प्रेम में बंधन नहीं, मुक्ति होती है।किंतु ,वास्तव में देखा जाए तो प्रेम का बंधन तो होता ही है अन्यथा एक दूसरे से कोई कैसे जुड़ सकता है। लेकिन ये बंधन आत्मिक स्वीकृति के साथ होता है,समर्पण के साथ होता है ,एक दूसरे की भावनाओं को सम्मान देने से होता है तो आनंद की अनुभूति इतनी अधिक होती है कि वह बंधन का नहीं अपितु, मुक्ति का बोध कराता है।


जिस जगह संबंध आत्मिक नहीं बनता,समर्पण नहीं रहता उसे प्रेम संबंध तो नहीं कह सकते। वैचारिक मतभेद हों और एक दूसरे से अपनी बात मनवाने पर ऊर्जा लग रही हो, तो अच्छे से अच्छे संबंध टूट जाते हैं। तब इस बंधन में किसी को लग सकता है कि उसकी आज़ादी छिन रही है, या उस पर अनावश्यक अधिकार जताया जा रहा है। ऐसे में यदि दोनों में से किसी एक को भी बाध्यता महसूस होती हो, तब ये सोच आपसी द्वेष को जन्म देती है। जबकि आत्मिक रूप से जुड़े रिश्तों में कुछ मांगा नहीं जाता बल्कि आत्मिक दृष्टि से विचार करके एक दूसरे की भावनाओं की कद्र की जाती है और उनको समझा जाता है। आत्मिक प्रेम संबंधों में असली आज़ादी उन विचारों से मुक्ति है जो आत्मिक रूप से रिलेशनशिप में जुड़े लोगों को अलग करने की क्षमता रखते हैं। 

एक दूसरे की भावना को समझना और एक दूसरे की आत्मा आहत न हो, उसका ध्यान रखना ही प्रेम है। ऐसे में आप स्वयं को कभी अकेला महसूस नहीं करते।आपको अपने ही समान किसी अन्य के ,जो आपको समझता है,आपके सुख दुःख का साथी है,हमेशा साथ होने का सुखद एहसास बना रहता है। ऐसे संबंध में वादे कसमें भले ही न खाई जाएं लेकिन उस रिलेशनशिप अथवा संबंध का क्या अर्थ है जिसमें ये एहसास भी न हो कि साथी के जज़्बात क्या हैं, एक दूसरे से मन की बात खुल कर स्पष्ट तौर से न कि जा सके न समझी जा सके, तो फिर कौन सा ऐसा एहसास है जो दो लोगों को आपस में एक रिश्ते में जोड़े रखेगा ? 

क्योंकि रिलेशनशिप में जुड़ाव होने पर दोनों व्यक्ति एक दूसरे से उम्मीद रखते ही हैं कि उनके प्रेम में ऐसा कोई नकारात्मक विचार उत्पन्न न हो जो उन्हें जुदा कर दे। शारीरिक रूप से साथ रहना जरूरी नहीं लेकिन आत्मिक और वैचारिक रूप से साथ रहना आवश्यक है। आज़ादी शब्द का अर्थ भी प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग हो सकता है। देखना यह है कि उसमें सकारात्मकता उभर के आए जिसमें ये एहसास खो जाए कि वे किसी विवशतावश जुड़े हैं।


                                                        - जितेंदर पाल सिंह 'दीप'



No comments:

Post a Comment