आज मैं एक
क़िला फतेह कर
आया हूं,
आज मैं एक,
रेत का महल,
ढहा आया हूं,
आज मैंने,
नदी में,
कागज़ की नाव,
मझधार में छोड़ आया हूं,
यह अलग बात है,
वह मेरे सामने ही,
डूब गई,
मैंने डूबती नाव को,
बचाने की,
कोशिश भी
नहीं की,
जबकि नाव नई थी,
उसके तल में छेद भी नहीं था,
इस वर्ष मैंने,
अपनी हथेली पर,
सरसों उगाई,
अब उसे बेचूं?
किसको,?
अब मैं बाज़ार हो,
गया हूं,
हथेली की सरसों,
बहुत बिकेंगी।
आज मैं बहुत बड़ी,
भीड़ का हिस्सा भी,
बन आया हूं,
नेता ब़ड़ा नहीं था,
पांच सौ का नोट
लेकर अपना ईमान,
बेच आया हूं,
मैं अब आंदोलनकारी,
हो गया हूं,
अपने सिद्धांत,
ताक पर रख आया हूं,
अब मैं लोकतंत्र बचा लूंगा,
रात को मैंने,
बड़े ऊंचे ऊंचे,
ख्वाब देखे,
मैंने एक अंडे से,
मुर्गीखाना बना लिया है,
अब मैं जल्दी ही,
अंबानी बन जाउंगा।
आज मैं हवा में लाठियां लहरा आया हूं,
मैं लड़ाई को तैयार हूं,
पर मैं अपने आप से नहीं लड़ पाया हूं।
हार जाता हूं,
हर बार,
वक्त की लाठी से की बार पिटा हूं।
अभी थका नहीं हूं,
खुद से जीतने की कोशिश जारी है,
जीतूंगा तो बताउंगा।
- राजेश 'ललित' शर्मा
रेत का महल जो की आदरणीय राजेश ललित शर्मा जी द्वारा लिखित एक सच्चाई है क्योंकि
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