साहित्य चक्र

29 February 2020

तुम्हें मेरी इज्जत के साथ खेलने की इजाजत है।



अच्छा तो तुम सही मैं गलत हूँ 
लेकिन ये बताओ 
मुझ पे हाथ उठा के, 
मेरे आत्म सम्मान को गिरा के 
तुम सही कैसे हो सकते हो ....


मेरे हर फैसले को नकार कर
कमजोर हूँ मैं कदम कदम पर 
मुझे ये एहसास दिला कर
मेरे आत्म विश्वास को दबा कर
तुम सही कैसे हो सकते हो ....


सिर्फ नजरों से ही देख कर 
तुम मुझे मेरी ही नजरों में गिरा देते हो
जो कभी हँसकर बातें कर ली किसी से तो 
पलभर में मेरे चरित्र पर सवाल उठा कर
तुम सही कैसे हो सकते हो ....


सिर्फ तुम से मेरे हँस कर बात करने भर से
तुम्हें मेरी इज्जत के साथ खेलने की इजाजत है 
तुम्हारा ऐसा सोच लेना 
और अगले पल मेरे अस्तित्व को मिटा कर
तुम सही कैसे हो सकते हो....

                                  प्रिया कुमारी



कभी मंदिर,कभी मस्जिद


ईश्वर की आवाज
जो आया मेरे दर पर
बस कुछ न कुछ
मांगने आया।

पर कभी मांगा न मुझे
न मांगा मेरा
प्रेम तत्व मुझसे।

बस हताश रहा
मुक्ति के लिए,
और परेशान रहा
अपनी इच्छाओं के लिए।

बस ढूंढता रहा
लोगों में कमियां
न तलाशा की उनकी
आत्मा में मेरी अभिव्यक्ति।

अपनी घर की
चारदीवारी की तरह
मुझे भी बांटता रहा,
कभी मंदिर,कभी मस्जिद
कभी गिरजाघर के रूप में।


                                       राजीव डोगरा 'विमल'


"तोहफ़ा/उपहार"



एक नन्हीं सी बच्ची जिसको पैदा होते ही कहीं फेंक दिया गया था मरने के लिए, पर उस रब की कृपा से उसे कोई औरत घर ले गई,उस औरत को उपहार के रूप में मां बनने का सौभाग्य मिला तो उस बच्ची को उपहार के रूप में नई जिंदगी, मां और परिवार मिला।

वह किसान जिसको अपने खेतों में सिर्फ हरियाली पसंद है, पानी ना मिलने से वो खेत बंजर हो चले, उस मायूस किसान के लिए पानी की एक-एक बूंद कोई उपहार से कम नहीं।

वो माता पिता जिन्होंने हमेशा अपने बच्चों की खुशी का ख्याल रखा, उनके ओढ़ने पहनने से लेकर उनकी पढ़ाई लिखाई हर चीज की पूर्ति की, उन माता-पिता के लिए उनके बच्चों की कामयाबी, बच्चों का माता-पिता के प्रति सही व्यवहार और वक्त ही उनके लिए सबसे बड़ा उपहार है और हर बच्चे के लिए उनके माता-पिता एक अनमोल उपहार से कम नहीं।

वह इंसान जो किसी दर्दनाक हादसे में भी जीवित बच गया, उस इंसान के लिए एक नई जिंदगी किसी उपहार से कम नहीं। वह बच्चे जो हमेशा से पढ़ना चाहते हैं स्कूल जाना चाहते हैं पढ़ लिख कर नाम कमाना चाहते हैं, लेकिन किसी वजह से उनको यह सब प्राप्त नहीं हो पाता, उन बच्चों को अगर कॉपी किताबें और पाठशाला जाने का मौका मिले तो उन बच्चों के लिए यह नई जिंदगी किसी उपहार से कम नहीं।

वह इंसान जिसको खाना देखना भी नसीब नहीं होता, जिसके पास सर ढकने के लिए छत तक नहीं है अगर उस इंसान को दो वक्त का खाना मिलने लगे और सर ढकने के लिए छत मिल जाए तो वह उसके लिए किसी तोहफे से कम नहीं।


हर इंसान के लिए हर एक नया दिन, हर वह चीज खाने के लिए खाना सर ढकने के लिए छत रहने के लिए घर और परिवार मिला है वो रब का एक अनमोल तोहफा ही होता है जिसकी हर इंसान को कद्र करनी चाहिए हर दिन को एक उपहार की तरह कबूल कर जिंदगी को सही से जीना चाहिए।

                                                         ©निहारिका चौधरी


वन में वैरागिनी बन बैठी



कंठस्थ बैठी हूँ तेरे प्रेम का बाग लिए,
मेरी साँसों में तेरे नाम का राग लिए। 
तम,ज्योति,ग़म,हँसी सब पल्लवित है- 
पर मैं तो रोती रही तेरा अनुराग लिए।। 

गिरि शिखर पर बैठी हूँ बुझी आग लिए, 
तुम तो आए नहीं तब भी हम जाग लिए।
उस गिरि पर सजाया पुष्प प्रेम का कभी-
मैं तो रोती रही पुष्प प्रत्यु का दाग लिए।।

राह में राह तकती रही एक आस लिए, 
वो मिलने आया भी तो खरमास लिए।
कैसे प्रीत निभाती तुमसे मैं प्राणाधार-
मैं तो रोती रही प्रेम पलों की प्यास लिए।.

शाख सी टूटी हूँ शमीवृक्ष का शाप लिए, 
बहने निकली पावन नदियों का माप लिए। 
बिखरी हूँ झरने की बूँद-बूँद सी पत्थरों पर-
मैं तो रोती रही प्रेम अग्नि का ताप लिए।।

वन में वैरागिनी बन बैठी कैसा वैराग लिए,
निकली वन को, सिया राम सा त्याग लिए। 
किसी मंदिर की मूरत नहीं मैंने तुम्हे पूजा है-
मैं तो रोती रही माटी कलश का भाग लिए।।


                                     कृतिका 'प्रकृति' 


नेताओं से यारों होता गदहा महान है



चंद नेताओं से यारों होता गदहा महान है ।
चंद पैसो के लिए बेचता नहीं अपना ईमान है ।
कौन कहता है हमारे देश में महंगाई बहुत है ।
चंद पैसों में बिकता यहां नेताओं का जमीर है ।

शाश्वत सत्य है कि लोकतंत्र में जनता होता महान है ।
पर सियासी लोगों के चालाकी से होता सब अनजान है ।
फूट डालो शासन करो, सबमें सक्रिय होती राजनीति है ।
समझो या ना समझो, यहीं भारत की बर्बादी, उनकी काली नीति है ।

आपस में मत कर लड़ाई, रक्तरंजित होती माँ भारती है ।
आपस में कर लड़ाई, सियासतदारों की होती खातेदारी है ।
जाति, धर्म, भाषा चाहे हो मजहब सबमें सक्रिय होती  भागीदारी है ।
इसके फंसाने में अब नहीं है आना,यहीं तो हमारी जिम्मेदारी है।

                                   राजन कुमार साह "साहित्य"



मैं गृहणी हूँ



मैं गृहणी हूँ और आते-जाते 
 कामों की गिनती किये बिना 
अपनी भावनाओं को व्यक्त करने 
 हेतु   समय भी निकालती हूँ
 मैं गृहणी हूँ इसका अर्थ ये कदापि नहीं
 कि सामाजिक गतिविधियों पर 
मेरी  नज़र नहीं या
  देश से जुड़ा कोई भी पहलू
 मुझसे अछूता है
  मैं गृहणी हूँ पढ़ी-लिखी 
जानने की जिज्ञासा रखने वाली
 सीखने की प्रेरणा रखने वाली
  और पारिवारिक दायित्वों को 
  निभाते हुए मैं खुश भी तो हूँ
 मैं गृहणी हूँ और
धैर्य के अथाह सागर में 
गोते लगाती हूँ
 और  परिस्थितियों के साथ 
  तालमेल बिठा 
 मैं खुद के लिखे गीत गुनगुनाती हूँ
  मैं गृहणी हूँ और
 खुद के लिए जीना सीख रही हूँ
  मगर कुछ ख्वाहिशों की 
 अनदेखी करना मेरी फितरत में है
  तो मैं क्या करूँ? 
 और इस बात से मुझे 
 कतई इन्कार नहीं कि 
 इसी में मुझे सुकून भी तो है
  मैं गृहणी हूँ और" अवनि" बन
मुस्कुराते हुए आपसे बतियाते हुए
 अपने जीवन को अपनी लेखनी से
  एक नया आयाम देने  को 
 तैयार बैठी हूँ|

                                               उमा पाटनी अवनि 


26 February 2020

चंद्रशेखर आज़ाद




अपना नाम .......
आजाद ।
पिता का नाम ........
स्वतंत्रता बतलाता था।

 जेल को ,
अपना घर कहता था। 
भारत मां की,
जय -जयकार लगाता था।

भाबरा की ,
माटी को अमर कर।
उस दिन भारत का ,
सीना गर्व से फूला था ।

चंद्रशेखर आज़ाद के साथ ,
वंदे मातरम्.............
भारत मां की जय.......
देश का बच्चा-बच्चा बोला था।


जलियांवाले बाग की कहानी, 
फिर ना दोहराई जाएगी ।
फिरंगी को ,
देने को गोली.....आज़ाद ने ,
कसम देश की खाई थी ।


भारत मां का, 
जयकारा .......उस समय ,
जो कोई भी लगाता था ।

फिरंगी से वो.....तब,
बेंत की सजा पाता था ।
कहकर .......आजाद 
खुद को भारत मां का सपूत ,
भारत मां की,जय -जयकार बुलाता था।
 कोड़ों  से छलनी सपूत वो
 आजादी का सपना,
 नहीं भूलाता था।


अंतिम समय में ,
झुकने ना दिया सिर ,
बड़ी शान से ,
मूछों को ताव लगाता था।

हंस कर मौत को गले लगाया था।
आज़ाद.... 
आज़ादी के गीत ही गाता था।।


                                  प्रीति शर्मा "असीम "


व्यापारी बन बैठा ये जमाना



अब रूहों से रूहों का, 
जहाँ में इकरार नहीं होता।
प्यार तो होता है जमाने में,
पर प्यार सा प्यार नहीं होता।


व्यापारी बन बैठा ये जमाना,
है रूप और शोहरत का दीवाना।
खूब छलकते है ख्वाहिशों के जाम,
मगर हकीकत का दीदार नहीं होता।


ख्वाहिश मंदो की ख्वाहिश है,
मोहब्बत अब सिर्फ नुमाइश है।
वक्त गुजारने पेड़ों पर आते हैं परिंदे,
अब घोंसला दरख्तों का तलबगार नहीं होता।


जिस्मों से जिस्मों तक का प्यार है,
मोहब्बत टूटे आइनो का व्यापार है।
इन आइनो में बसे चेहरों के ऊपर,
अब कोई भी भाव दमदार नहीं होता।


मन से उतर जाती है मनमानियां,
याद आती है जब वफा की बेइमानियां।
बेवफाई के नुकीले दामन में अब,
वफा के फूलों सा किरदार नहीं होता।


                                        आरती त्रिपाठी


बसंत कहां..... ढूंढू





मैं बसंत .........कहां ढूंढू ।
बोझिल सुबह से ,
अधमूंदी आंखों में,
 सतरंगी सपने कैसी बुनू।।


मैं बसंत....... कहां ढूंढू ।
पथरीली दीवारों में,
 इमारतों के जंगल में ,
भागती हुई गाड़ियों में ,
खिले हैं ..........गुलाब
 कहां .............ढूंढू ।


मैं बसंत कहां......... ढूंढू।

 थकी हुई जिंदगी ,
जब काम से,
 वापिस है आती। 
परेशानियों का ,
बोझा साथ लाती।


 उम्मीदों के बुझते चिरागों में, 
हिम्मत का साहस कैसे भरूं।

 मैं बसंत कहां........... ढूंढू।

 बसंत  तो ,
मन के भीतर आएगा ।
फिर बाहर वह जगमगा जाएगा।


मैं जीने का रंग,
 कहां -कहां भरूं।

 मैं बसंत....... कहां ढूंढू।
 कितनी नीरसता है।
 मैं उमंगो का रस कैसे भरूं।।  


                                           प्रीति शर्मा "असीम" 

देश की बेटी निर्भया और प्रियंका




काश ! अगर मैं तेरे, इंसानियत के पीछे छिपेे,
 हैवान को पहचान पाती।
तो शायद, मैं आज तेरी हैवानियत का शिकार न हो पाती।

काश ! अगर मैं तेरे दिल में छिपी हुई,
दरिंदगी को पहचान पाती।
तो शायद, मैं तुझ जैसे दरिंदे से ,
अपनी लाज को बचा पाती।

काश ! अगर मैं तेरे दिलों-दिमाग में चल रहे, 
षड़्यंत्र को पहचान पाती।
तो शायद, मैं तेरे घिनोने षड़्यंत्र के खेल का मुहरा न बन पाती।

काश ! अगर मैं तेरे चेहरे के पीछे, छिपे नकाब को पहचान पाती।
तो शायद ,मैं अपने चेहरे के नकाब को बेनकाब न होने देती।

काश ! अगर मैं तेरी असलियत को पहचान पाती।
तो यूँ, अकेले में बैठकर आँखों से 
अनगिनत आँसू न बहा रही होती।


काश ! अगर ,हे खुदा तुने,
देश की बहन - बेटियों की,
दर्द भरी रोने की, चिल्लाने की,
सिसकने की,आवाज सुनी होती।

तो शायद आज निर्भया,प्रियंका,
जैसी देश की बेटियाँ,
धरती माता को लिपटकर रोते हुए, 
अपनी मृत्यु को न अपनाती।

                                   दीपिका कटरे


घुट घुट कर ना मरना होगा

कदम मिला कर चलना होगा




बिना कर्म मिलती कब मंज़िल, कांटो से न डरना होगा।
थाम हौसला धैर्य का दामन कर्म के पथ पर चलना होगा।
बाधाएं घिर कर आएंगी, तूफ़ानी मौसम भी होगा।
लड़ना होगा बाधाओं से घुट घुट कर ना मरना होगा।
कदम मिला कर चलना होगा।


जंग भले कितना हो मुश्किल कदम कभी ना रुकने देना।
वक्त के साथ सदा तुम चलना नहीं इरादा थमने देना।
चुनौती को करना स्वीकार, हिम्मत मत जाना तुम हार।
आंधी हो या तुफा हो बन सत्य का दीपक जलना होगा।
कदम मिला कर चलना होगा।


बिना कड़ा संघर्ष कभी भी हासिल होता नहीं मुकाम।
कठिन तपस्या की राहों में आती हैं बाधाएं तमाम।
सुनो हौसले की स्याही से किस्मत की लकीरें ख़ुद लिखना।
दूर तिमिर करने को जग में बन के सूरज तपना होगा।
क़दम मिला कर चलना होगा।


चट्टानों से टकराना तुम, तूफ़ानों संग लड़ना होगा
चाहें कितनी दूर हो मंज़िल ना थकना ना रुकना होगा।
कंटक पथ में बिछे मिलेंगे बाधाएं सब खड़े मिलेंगे।
हासिल लक्ष्य हो नियत तेरी इतिहास नया अब गढ़ना होगा
कदम मिला कर चलना होगा।।

मणि बेन द्विवेदी


अपना-अपना प्रेम समर्पण

गीतिका
............


कभी  अहम को मेरे दिल का पता न देना
दिल  की कोमलता का कारण बता न देना

जिसको भाता है उसके संग ही रहने दो
प्रिय तुम अपना अपना प्रेम समर्पण जता न देना

मन उपवन  में जो पतझड़ को पाल रहे हैं
हरगिज उन हाथों में नाजुक लता न देना

पाक प्रेम की दुनिया में मन को जीने दो
तुम्हे कसम है एक पल को भी सत्ता न देना

गलती कर स्वीकारेंगे तो मान बढ़ेगा
दूजे के सर लिख तुम अपनी ख़ता न देना

जुर्म सहे लेकिन प्रतिकार न करना जाने
मन को हरगिज इतनी भी सौम्यता न देना

मेहनत से जो गुण पाए काफी है "अंचल"
उठा पटक कर और अधिक गुणवत्ता न देना।।

                               ममता शर्मा"अंचल"


23 February 2020

समय का सदुपयोग



          समय न रुकता है न थकता है। बस हर पल चलता रहता है। समय के न पांव है न कोई पहिया है। फिर भी बड़ी रफ्तार से दौड़ता है। बहुत सारे लोग समय का सही उपयोग कर पाते हैं तो बहुत सारे नहीं भी।अक्सर लोग बस इसी सोच विचार में ही अपना समय खराब कर देते हैं। मैंने यह कार्य करना है या नहीं? मगर वे कभी नहीं विचार करते की जितना समय वो सोचने में निकल देते है। उतने में उस कार्य का सही समय भी निकल जाता है। और जब सही समय निकल जाता है तो सही मौका,सही इंसान और सही चीज भी हाथों से निकल जाती है। 

                    


               समय का सही प्रयोग सिर्फ किसी कार्य के लिए नहीं होता।समय का सदुपयोग रिश्तो के लिए भी होता है,इंसानों के लिए भी होता है और ईश्वर के लिए भी होता है। जिस प्रकार एक विद्यार्थी परीक्षा नजदीक आने पर भी। अपने कार्य के प्रति सजग न होकर। परीक्षा की तैयारी नहीं करता तो वह समय का सदुपयोग नहीं कर पाता और अंत में परीक्षा में उत्तीर्ण ही नहीं हो पाता।उसी प्रकार अगर हम सही समय पर रिश्तो की देखरेख और परख नही कर पाते तो अच्छे इंसान और अच्छे रिश्ते भी हमारे हाथों से निकल जाते हैं। 

          आज के आधुनिक समय में माता-पिता अपने बच्चे के लिए समय निकालकर अच्छी शिक्षा और नैतिक गुणों को उसमें नहीं भर पाते तो। आगे चलकर वह कभी इस बात के लिए किसी और को दोषी नहीं ठहरा सकते कि उनका बच्चा गलत संगति में पड़ा हुआ है या नशे जैसी बुरी आदतों से जुड़ा हुआ है। उसके लिए समाज नहीं बच्चा नहीं सबसे पहले स्वयं उसके माता-पिता दोषी है कि उन्होंने समय का सदुपयोग न कर अपने बच्चे में उन गुणों को उजागर नहीं किया जिससे वह एक श्रेष्ठ सामाजिक प्राणी बन सके।

            अंत में मैं यही कहूंगा कि अगर हम समय का सदुपयोग कर पाते हैं तो हम एक श्रेष्ठ सामाजिक प्राणी बन पाएंगे क्योंकि जो व्यक्ति समय का सदुपयोग करता है। वह हर कार्य को बड़ी श्रेष्ठता कर पाता है। हर रिश्ते के प्रति सजग हो पाता है और उनको निभा पाता है।

                                                    राजीव डोगरा कांगड़ा


22 February 2020

हवा की हल्की सी फड़फड़ाहट





यदि मैं कोई पौध हूँ 
तो वहीं -कहीं किसी
खेत में रोपना मुझे
जहां दुख का बाग न हो
मैं  नाजुक सा अंकुर हूँ
हवा की हल्की सी फड़फड़ाहट से 
टूट जाता हूँ
यदि मैं कोई गिलहरी हूँ
तो चुपके से अपने हाथों में
एक मुंगफली का दाना रख देना
देखो शोर न करना
चीखना नहीं 
मैंने पेड़ों से खामोशी
और पक्षियों से बोलना सीखा है
दिल कांच  सा  नाजुक है
शहर के धमाकों से टूट सकता है
यदि मैं हूँ कोई प्रेमिका
तो बस  उतना चाहना 
कि तुम्हारे साथ जीने का मन हो
इससे ज़्यादा कोई क्या दे सकता है
किसी को?
इससे अधिक कोई क्या चाह सकता है
यदि वह जीवित है !

                                                   पूर्णिमा वत्स 


कर्मवीर चल पड़े

प्राची




प्राची के तट से उठकर दिनकर मुस्काये।
खग कुल ने मधुरस में भींगे गीत सुनाये।।

कर्मवीर  चल  पड़े सपन को पूरा करने।
जिससे जितना हो सम्भव,पर पीड़ा हरने।।

अगर उठे हो ऊपर  तो  सूरज बन जाओ।
होकर धुर निष्पक्ष धरा रौशन कर आओ।।

सागर  बनने की इच्छा यदि मन में पालो।
उर में रख सामर्थ्य, मगर अर्णव सम्हालो।।

अगर पवन बनकर उड़ना भाता हो मन को।
जैव जगत में प्राण वायु बन सींचो तन को।।

इन्द्रासन की भूख  जिन्हें छल छद्म करेंगे।
नाना  हथकंडे    अपनाकर   लोभ वरेंगे।।

धर्म - कर्म हैं पूरक,जैव - जगत उद्धारक।
बनो नहीं निज स्वार्थवशी होकर संहारक।।

कलम हाथ में गहकर कवि बनना गर ठानो।
रच कबीर की वाणी मानवता पहचानो।।


                                             डॉ अवधेश कुमार अवध