साहित्य चक्र

11 July 2021

दिए नहीं जीये जाते हैं संस्कार


कविता एक भरे पूरे परिवार में रहती है l सास ससुर भी हैं साथ में l आना - जाना भी लगा रहता है l खुद भी काम काजी है l सुबह जल्दी उठ कर रसोई के काम निपटाती है l कुकर चढ़ा कर नहाने चली जाती है l इसी तरह सभी काम घड़ी के साथ मैनेज करते हुए निपटाती है l आखिरी काम होता है रोटी बनाना l कविता की सास खड़ी हो कर खाना नहीं बना सकतीं इसलिए वे कविता की यह भागमभाग देखती रहतीं l एक दिन उन्होंने कहा, “बहू तुम मुझे आटे की परांत और पटा बेलन दे दो l मैं नीचे से रोटी बेल कर दूँगी l तुम सेंक देना l कुछ तो मदद हो जाएगी l”





     माँ जी की बात कविता को जंच गई l अब ये रोज का क्रम बन गया था l नन्ही शुभी देखती तो उसे बड़ा मज़ा आता l कभी- कभी वह भी वहीं पास में आ कर खड़ी हो जाती और दादी के हाथ से बेली गई रोटी ले कर मम्मी के हाथ पर रख देती l

       कोरोना का संक्रमण फैला तो पूरा परिवार पॉजिटिव हो गया l उपचार के बाद सब ठीक तो हो गए लेकिन कमज़ोरी सभी को थी l वृद्धावस्था के कारण माता जी को ज्यादा कमजोरी आ गई थी l वे अभी भी बिस्तर पर ही थी l

      अवकाश समाप्त हो गया तो कविता ने जॉइन कर लिया l फिर सुबह - सुबह वही काम का दबाव , जल्दबाज़ी और अब तो माँ जी की मदद भी नहीं थी l ऐसे ही एक दिन उसको चक्कर आने लगे उसने गैस का नॉब घुमाया और आ कर बिस्तर पर लेट गई l अभी पाँच मिनट भी नहीं हुए थे कि उसकी नजर घड़ी पर पड़ी- उफ्फ! ये तो नौ बज गए l राहत की बात थी कि फ्रिज में आटा सना रखा था l हड़बड़ी में उठ कर गई और गैस जला कर उस पर तवा रखा फिर गैस के आस पास झांकने लगी, आखिर पटा बेलन कहाँ रख दिए… यहीं तो थे l अरे… ! 

याद आया महरी बर्तनों की डलिया में रख गई होगी l उसने नीचे नजर दौड़ाई तो देख कर दंग रह गई l नन्ही सी बच्ची, शुभी , उसी छोटी चटाई को बिछा कर बैठी थी जिस पर बैठ कर दादी रोटी बेलती थी l अपने नन्हे हाथों से वह रोटी बेलने की कोशिश कर रही थी l कविता ने पास बैठेते हुए कहा, “ क्या कर रही हो शुभी l आपने तो अभी रोटी बेलना नहीं सीखा l छोड़ दो आपसे नहीं बनेगा l

  "लेकिन शुभी फिर भी, आड़ी टेढ़ी रोटी बेलने में , तन्मयता से लगी रही l उसने मम्मी की ओर देखे वगैर ही कहा, कुछ तो मदद मिलेगी l"

 कविता सोच रही थी मदद करने का यह संस्कार उसे अपनी दादी से मिला l जिस संयुक्त परिवार को वह जिम्मेदारियों की अधिकता के कारण कभी- कभी बोझ समझने लगती थी आज उसका महत्व उसकी समझ में आ गया l अब कविता अपनी बेटी के संस्कारों को ले कर निश्चिंत हो चुकी थी l


                                         लेखिका- अनीता श्रीवास्तव


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